11 जुलाई – विश्व जनसंख्या दिवस और इंडिया बनाम भारत

बधाई एवं शुभकामना

आज विश्व जनसंख्या दिवस (World Population Day) है । इस अवसर पर मैं अपने देशवासियों को बधाई और शुभकामना देना चाहता हूं ।

बधाई इस बात पर कि अपना ‘इंडिया दैट इज भारत’ शीघ्र ही सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश बन जाएगा । अभी चीन की जनसंख्या सर्वाधिक है किंतु उसकी आबादी नियंत्रण में है । विशेषज्ञों के अनुसार वह अधिकतम करीब 140 करोड़ के आंकड़े को छुएगी । अभी वह 135 के आसपास है । अपने इंडिया दैट इज भारत की आबादी फिलहाल 120 करोड़ से ऊपर है । जिस रफ्तार से वह बढ़ रही है उसे देखते हुए उसे 140 करोड़ पहुंचने में 15 वर्ष से अधिक का समय नहीं लगना चाहिए । थोड़ा विलंब हो भी गया तो भी 20 साल के भीतर तो हम चीन से आगे बढ़ ही जाएंगे । तब हम सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन ही जाएंगे । हम अपने को किसी क्षेत्र में – चाहे जनसंख्या का ही क्षेत्र क्यों न हो – सर्वोंपरि सिद्ध कर लेंगे । क्या यह छोटी-मोटी उपलब्धि होगी ? इसी बात पर मेरी देशवासियों के प्रति बधाई !

साथ में मेरी शुभकामना भी । अपना देश इस बढ़ती जनसंख्या के बोझ को किसी प्रकार वहन कर सके ऐसी शुभेच्छाएं लोगों के प्रति हैं । ऊपर वाले से मेरी प्रार्थना है – अगर वह किसी की सुनता हो तो – कि दुनिया के सभी कुपोषित, भूखे, रुग्ण, अनपढ़ एवं बेरोजगार यहीं हों ऐसी मेहरबानी कृपया न करे । देश भगवान भरोसे है, आगे भी रहेगा, इसलिए उससे प्रार्थना करना निहायत जरूरी है ।

जनसंख्या दिवस – औचित्य?

वैसे ‘विश्व जनसंख्या दिवस’ मनाने का क्या औचित्य है यह मैं आज तक समझ नहीं सका । दीवाली हो तो पटाखे छुड़ाऊं, होली हो तो मित्रों के अबीर-गुलाल लगाऊं, ईद हो तो सेवई खाने-खिलाने की सोचूं, किसी महापुरुष का जन्मदिन हो तो भी जश्न मनाने की सोचूं, आदि-आदि । लेकिन इस दिन को कैसे मनाऊं ?

आप कहेंगे कि जनसंख्या वृद्धि को लेकर कुछ करिए । क्या करूं ? क्या कर सकता हूं मैं ? अपने हाथ में है क्या ? आप कहेंगे लोगों को समझाएं । साल में एक दिन ऐसा करना क्या माने रखता है ? साल के एक दिन क्या किसी शराबी को शराब न पीने की, किसी तंबाकूबाज को सिगरेट न पीने की, सलाह दे दें तो क्या वह मान जाएगा ? बार-बार याद दिलाने पर भी कुछ काम बनेगा इसकी भी आशा मैं नहीं कर पाता । किसी को सलाह देने पर वह कह सकता कि आप परेशान न हों; मेरे परिवार का पेट आपको नहीं भरना पड़ेगा । वह यह भी कह सकता है कि परिवार की वृद्धि तो ऊपर वाले की मरजी से है, मैं भला क्या करूं । वह ऐसे ही तमाम तर्क दे सकता है । मेरे पास समझाने को कुछ नहीं । जिसे ‘सन्मति’ होगी उसे समझाने की जरूरत नहीं, और जिसे नहीं है, उसके मामले में ‘भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय’ वाली कहावत लागू होती है ।

यों भी अपने देश में इस दिवस की कोई अहमियत नहीं । हमारे सरकारों, राजनैतिक दलों, प्रशासनिक अधिकारियों एवं बुद्धिजीवियों ने इस मुद्दे को दशकों पहले तिलांजलि दे दी थी । मुझे पिछली सदी के साठ-सत्तर के दशकों की याद है, जब मैं युवावस्था में प्रवेश कर चुका था और परिवार नियोजन के अर्थ समझने लगा था । वे दिन थे जब ‘हम दो हमारे दो’ जैसे नारे जहां-तहां दिखाई-सुनाई पड़ते थे । सड़क किनारे होर्डिंगों, बसों, पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठों आदि पर ‘उल्टा लाल तिकोन’ के निशान दिखते थे । नियोजित परिवार के पक्ष में विज्ञापनों एवं अन्य साधनों का सहारा लिया जाता था ।

पटरी से उतरा परिवार नियोजन कार्यक्रम

तब परिवार नियोजन की गाड़ी चल तो रही थी । इसे देश का दुर्भाग्य कहें कि सौभाग्य यह तो आप जानें कि गाड़ी पटरी से उतरी तो उतरी ही रह गई । ठप हो गयी तो हो गयी । सत्तर के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिराजी के कनिष्ठ पुत्र, स्व. संजय गांधी, के मन में यह जोशीला विचार उठा कि जनसंख्या पर जबर्दस्त तरीकों से नियंत्रण किया जाना चाहिए । उनके बारे में लोगों में यह धारणा व्याप्त थी कि सत्ता पर उनका जोरदार प्रभाव था, और उनके कार्यक्रम के विरोध का साहस सत्तापक्ष में किसी को नहीं था । वे सत्ता में न होते हुए भी सत्ता की हैसियत रखते थे । उनके जोश का परिणाम था कि गाड़ी ने तेज रफ्तार पकड़ी और पटरी से ऐसी उतरी कि फिर पटरी पर चढ़ नहीं सकी । उसके बाद आपात्काल घोषित हुआ, सत्ता परिवर्तन हुआ, कालांतर में श्री संजय गांधी भी इहलोक से विदा हो गये, इत्यादि ।

उस काल की घटनाओं का परिणाम यह रहा कि सभी राजनैतिक दलों ने कसम खा ली कि अब जनसंख्या नियंत्रण की बात सपने में भी नहीं की जानी चाहिए । चूंकि जनसंख्या वृद्धि के बाबत चिंता सारी दुनिया में व्यक्त की जा रही है, अतः इस देश को भी उस कोलाहल में चीखना ही है । लेकिन यह चीखना सतही एवं दिखावे का है, गंभीरता कहीं नहीं है ।

मामला इंडिया बनाम भारत

और असल सवाल तो यह है कि आबादी बढ़ किसकी रही है ? ‘इंडिया’ की कि ‘भारत’ की ? याद रहे यह देश दो खंडों में बंटा है, इंडिया एवं भारत । इंडिया की पॉप्युलेशन नहीं बढ़ रही है । वहां टू-चाइल्ड, वन-चाइल्ड अथवा नो-चाइल्ड नॉर्म प्रैक्टिस में आ चुका है । वहां कि समस्याएं वही नहीं हैं जो भारत की है । वह तो वाकई शाइन कर रहा है । जनसंख्या वृद्धि तो भारत की समस्या है, जहां एक-एक परिवार में छः-छः, सात-सात बच्चे पैदा हो रहे हैं, जिनकी परवरिश बेढंगी है, जो कुपोषित हैं, जिनका इलाज छोलाछाप डाक्टर करते हैं, जिनकी स्कूली व्यवस्था में अक्षरज्ञान तक दुर्लभ है । और क्या-क्या बताऊं ?

भारत की जनसंख्या बढ़ जाए तो इंडिया को क्या फर्क पड़ता है ? देश की व्यवस्था तो इंडिया के हाथ में है । इंडिया घाटे में न रहे इसके लिए हर क्षेत्र में दोहरी व्यवस्था अपनाई गयी है अघोषित रूप में । आबादी बढ़ जाए तो उसको थोड़ी परेशानी तो होगी, लेकिन उसे सह लिया जाएगा । असली परेशानी तो भारत को होगी । उसी को तो संसाधनों के अभाव का दंश झेलना होगा । इंडिया उसके लिए क्यों परेशान होवे ?

इसलिए जनसंख्या की बात बेमानी है !

युवा शक्ति – पूंजी?

विश्व के तमाम देशों में आबादी बुढ़ा रही है; यानी उनके यहां आबादी का बृहत्तर हिस्सा प्रौढ़ों-बुजुर्गों का है । इसके विपरीत इंडिया दैट इज भारत में 70 फीसदी आबादी 35 वर्ष से कम उम्र के युवाओं की है ऐसा दावा किया जाता है । कुछ लोगों का मत है ये युवा तो अपने देश की पूंजी हैं । किन युवाओं की बात करते हैं आप ? सड़क पर कूड़ा बीनते हुए, ढाबे पर चायपानी के बर्तन साफ करते हुए, चौराहे पर फल-सब्जी बेचते हुए अथवा ईंटा-गारा ढोते हुए सार्थक स्कूली शिक्षा से वंचित जो बच्चे युवावस्था में पहुंच रहे हों उनको आप पूंजी कहते हैं ? हो सकता है, मेरी समझ निहायत घटिया हो । – योगेन्द्र जोशी

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