पिछली पोस्ट (16 अक्टूबर, 2008: बराक ओबामा, अमेरिकी डिमॉक्रेसी और हिंदुस्तानी लोकतंत्र) में मैंने इसी सप्ताह संपन्न हुए अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की संक्षिप्त चर्चा के साथ अमेरिकी तथा अपने देश की लोकतांत्रिक सोच के अंतर के बारे कुछ टिप्पणियां आरंभ की थीं । आगे प्रस्तुत है उन्हीं के शेष अंश ।
कितने राजनैतिक दल हैं अपने यहां जिनमें आंतरिक लोकतंत्र है । अधिकांशतः सभी एक व्यक्ति की ‘फलां एवं कंपनी’ से अधिक नहीं हैं, जो जब तक चाहे शीर्ष की ‘राजगद्दी’ पर आसीन रहेगा और आवश्यक हुआ तो अपनी संतान की बाकायदा ताजपोशी कर डालेगा । अन्य सब स्वयं उपकृत-से महसूस करते हुए खुशी का इजहार करने लगते हैं । क्या मजाल कि कोई चूं भी कर दे । हो किसी को आपत्ति तो दल से निकलकर अपनी अलग ‘कंपनी’ बना डाले । दल में रहना हो तो ’हाइकमांड’ के वर्चस्व तथा आदेश मानने ही पड़ेंगे । क्या यही है हमारे लोकतंत्र की उपलब्धि ?
इस देश में कुल कितने दल हैं ? कोई नहीं बता सकता है, सिवाय चुनाव आयोग के, जो स्वयं दलों की अधिकता से त्रस्त रहता है । अखबारों में तक उनका नाम देखने को नहीं मिलता है । लोकतांत्रिक स्वतंत्रता के नाम पर बेशक हमें कई अधिकार हैं, पर क्या मर्यादाओं का कोई सम्मान नहीं होना चाहिए ? क्या यह लोकतंत्र का मजाक नहीं है कि चंद समर्थकों की भीड़ जुटाकर और जनसमुदाय की अपेक्षाओं की उपेक्षा करते हुए नये दल की घोषणा कर दें, चाहे ऐसे दल की कोई अहमियत न हो । इस संदर्भ में सिद्धांतों की बात करना निहायत बेमानी है । कितने दल हैं जिनके सिद्धांतों में स्थायित्व हो ? जब चाहा दल को तोड़ दिया और जब चाहा जोड़ लिया । जब चाहा एक दल से दूसरे में और फिर उपयुक्त समय आने पर ‘घरवापसी’ । सत्ता हथियाने के लिए किसी से भी परहेज नहीं और यह सब सिद्धांतों और देश की खातिर ! मजाक और मजाक ! इसी लोकतंत्र के पक्षधर हैं हम ?
मुझे जितना याद है ओबामा ने अपने चुनाव अभियान में कहीं भी श्वेतों को नहीं कोसा, न ही उसने अश्वेतों की नुमाइंदगी की बात की या उनके समर्थन के बल पर जीत हासिल की । और इस आलेख के आंरभ में उल्लिखित उसके भाषण के अंशों से स्पष्ट है कि उसने अपने को किसी वर्गविशेष का व्यक्ति घोषित नहीं किया । उसने चुने हुए कुछएक वर्गों की बात नहीं की, बल्कि अमेरिकियों की बात की, सामूहिक तौर पर । कहीं दबी जबान में नस्ली भेद का मुद्दा कुछ लोगों ने भले ही उठाने की कोशिश की हो, पर स्वयं ओबामा ने शायद ऐसा नहीं किया ।
और अपने देश में क्या होता आ रहा है ? कोई दलितों का मसीहा बनकर आगे आ रहा है, तो कोई सवर्णों का मत बटोर रहा होता है । कोई मुस्लिमों के हित के नाम पर वोट बटोरता है, तो दूसरा हिंदुओं का प्रतिनिधि बन बैठता है । कोई मराठी अस्मिता की लड़ाई लड़ने की बात करता है, तो कोई तेलंगाना के प्रति भेदभाव का मुद्दा उछालता है । हर किसी का उद्येश्य एक वोट-बैंक तैयार करना होता है । जाति, धर्म आदि के विभाजनों से ऊपर उठकर देश की, प्रत्येक नागरिक की, बात कोई नहीं करता । यह किसी को याद नहीं रहता कि उसके चुनाव-क्षेत्र में तो सभी वर्गों के नागरिक हैं । सामाजिक विभाजन के विरुद्ध ऊंची-ऊंची हांकने वाले राजनेता इस जुगाड़ में रहते हैं ये विभाजक रेखाएं कैसे पुख्ता और स्थायी रहें । अपने वोटरों को रह-रहकर वे स्मरण कराते हैं कि वे किस वर्ग के हैं । बस यही चाहते हैं हम अपने लोकतंत्र में ?
वास्तव में कितना अंतर है दोनों देशों के लोकतांत्रिक भावना में !
हमारा देश सबसे बड़ा लोकतंत्र है, अमेरिका से भी बड़ा । बड़ा लोकतंत्र होना हमारी विवशता है । हम चाहें तो भी बड़ा लोकतंत्र कहलाने से बच नहीं सकते, क्योंकि हमारी सतत बढ़ती जनसंख्या ‘बड़ा’ बने रहने की गारंटी देता है । परंतु आप मानें या न मानें, हमारा लोकतंत्र महान् नहीं है । महान् कहलाने के योग्य इसमें कुछ भी नहीं, सिवाय इसके कि हर नागरिक को वोट देने का हक है । लोकतंत्र की शुरुआत वहीं पर होती है और वहीं आकर ठहर जाती है । शेष सब अलोकतांत्रिक ही तो है !
क्या हम कभी यह समझ पायेंगे कि लोकतंत्र की पहचान केवल मतदान नहीं है । स्वस्थ परंपराओं के बिना लोकतंत्र एक निर्जीव ढांचे जैसा होता है । परंपराएं उसे जीवन तथा सौंदर्य प्रदान करती हैं । कौन सी उच्च परंपराएं स्थापित की हैं हमारे जनप्रतिनिधियों ने ?
अमेरिकी जनतंत्र से हमें शायद बहुत कुछ सीखना है । – योगेन्द्र
अमेरीकी लोक तंत्र का आधार मिडीया है। जिसने अच्छा मिडीया मेनेजमेंट किया वह जीत गया। जिसके मिडीया कंसल्टेंट और ईभेंट मैनेजर ने उत्कृष्ट काम किया उसे चुन लेगी अमेरिकी जनता अपने राष्ट्रपति के रुप में।
हमारे देश मे मुश्किल से 5 प्रतिशत जनता टीभी, अखबार या एफ.एम के जरिए अपना विचार निर्माण करती है। इसलिए इस दृष्टी से हमारे यहा एक मजबुत लोकतंत्र है। लेकिन विदेशी शक्ति सम्पन्न राष्ट्र अब हमारे यहां भी मिडीया मे छदम निवेश बढा रहे है। तो हम यह मान सकते है की भविष्य मे हमारे यहां भी वही जितेगा जिसकी मिडीया मे अच्छी पकड हो। जनता जाए भाड में।
जो भी हो, अमेरीकी जनता ने ओबामा को अपना मुखिया चुन लिया है। बधाई है !!!
क्या हमारे परिवार में लोकतंत्र है? यदि नहीं तो उस से गठित बड़े निकायों में कहाँ से आएगी?
हमारे यहाँ “अपने नेता” को वोट देने, कुछ भी बकने-लिखने और कहीं भी थूकने-मूतने की, जमकर भ्रष्टाचार करने की आजादी है और भारत के बहुत से लोगों के लिये लोकतन्त्र का यही मतलब है, और कुछ नहीं…
इन चुनावों में वहां धर्म और नस्ल को किल्टंन और ओबामा ने खुल कर प्रयोग किया, खूब समाचार भी छपे इस बारे में। आप क्या कहते हैं इस बारे में?
हेलरी ने जब कहा था कि ओबामा मुसलमान माँ-बाप की संतान है, ये सभी समाचार में छपा था।
कृपया इसे देखें
http://www.bbc.co.uk/hindi/news/story/2008/02/080226_obama_dress.shtml
naari blog par kal is vishay mae vistrit rup sae kuch prash puchhey they par anutarit hee haen log laekh ko aalochna sakh rahey haen . yaani wahii daekh rahey jo dekhna chaaraey haen phir loktantr ki baat hi kehaa reh jaatee haen
link haen us post
http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2008/11/blog-post_07.html
aap bhi dekhe
नमस्ते सर,
आज आपके ब्लाग में पहली बार आया. आपके लेख बहुत ही अच्छे लगे.
आप चुनाव में वोट नही देते हैं यह बात पता लगी. मैने भी पिछली बार नही दिया था.
पर मैं सोचता हूं कि अगर कोई सामान्य निर्दलीय चुनाव लड़ रहा है. तो उसे एक बार आगे जरूर लाना चाहिये. आखिर उसने हिम्मत तो की है.