(१० फरवरी, २००९ की पोस्ट से आगे) लोकतांत्रिक शासन-पद्धति की शुरुआत निःसंदेह मतदान से होती है । हमारे देश में वयस्क लोगों को मतदान करने का अधिकार है और निर्वाचन आयोग यथासंभव ईमानदारी से प्रयास करता है कि हर व्यक्ति अपने मताधिकार का प्रयोग निर्भय होकर कर सके । यह भी सच है कि लोग मतदान करते हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या वे इस अधिकार का सोच-समझ कर इस्तेमाल करते हैं । क्या उन्हें इस बात की ठीक-ठीक समझ है कि उन्हें किस व्यक्ति के पक्ष में मत डालना चाहिए और वह किस आधार पर ? मैं यही अनुभव करता हूं कि लोग वोट डालते अवश्य हैं, किंतु सही निर्णय नहीं लेते हैं । या यूं कहिये कि वे सही निर्णय ले नहीं सकते हैं । इस बात को मैं अधिक स्पष्ट करूंगा, परंतु उससे पहले यह सवाल कि क्या मतदान प्रक्रिया का निर्विघ्न संपन्न हो जाना और मतदाता का निर्वाचन स्थल से संतुष्ट होकर लौटना ही सफल लोकतंत्र की पहचान है । क्या उसके बाद पांच वर्ष तक जो शासन चले उसकी गुणवत्ता का कोई मतलब नहीं ? उस पूरे अंतराल में जनप्रतिनिधियों का आचरण क्या रहा, उन्होंने अपने निजी हितों के ऊपर आम आदमी के हितों को तवज्जू दी कि नहीं, शासकीय व्यवस्था ने समाज के किस वर्ग को सर्वाधिक महत्त्व दिया, लोकतंत्र के कर्णधारों ने कुशल, ईमानदार तथा संवेदनशील प्रशासन स्थापित किया या नहीं आदि ऐसे सवाल हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती है । यदि इनके उत्तर संतोषप्रद न रहे हों अथवा नकारात्मक रहे हों तो हमें स्वीकार लेना चाहिए कि लोकतंत्र सफल नहीं हो पाया । तब क्षण भर ठहरकर पूरी पद्धति की समीक्षा करनी चाहिए और तदनुसार सुधार की पहल करनी चाहिए । कौन करेगा सुधार, कौन लायेगा परिवर्तन ? यदि असफलता दिखती है तो उसके लिए किसे जिम्मेदार कहा जायेगा इसका स्पष्ट उत्तर दिया जाना चाहिए । क्या यह सब कारगर तरीके से हो रहा है ?
निर्वाचन आयोग की जिम्मेदारी मतदान की प्रक्रिया के आरंभ से उसके समापन तक ही सीमित है । उसके आगे शेष कार्य तो राजनेताओं पर निर्भर करता है जिन्हें चुना जाता है और जिनको विधायिका का दायित्व निभाना होता है । जनता की प्रत्यक्ष भूमिका तो मतदान-प्रक्रिया के दौरान के कुछेक दिनों की होती है, उसके बाद सब कुछ राजनेताओं के हाथ में रहता है । जनता का तो फिर पांच वर्ष तक उन पर कोई नियंत्रण ही नहीं होता । नियंत्रण तो दूर की बात, उनसे सामान्य संवाद तक नहीं हो पाता । तब अगर वे जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप कार्य न करें, बल्कि अपनी मनमर्जी से चलें तो क्या लोकतंत्र सफल कहा जायेगा ? यदि किसी व्यक्ति को ऐसी व्यवस्था अस्वीकार्य लगे तो क्या उसे मतदान करते रहना चाहिए ? ऐसे लोकतंत्र के विरुद्ध अपनी भावना वह कैसे व्यक्त करे ? मुझे मतदान न करने के अतिरिक्त कोई अन्य चारा नजर नहीं आता । मौजूदा व्यवस्था में ‘मैं किसी को भी वोट नहीं देना चाहता हूं’ इस आशय का विकल्प चुनावों में हमारे यहां उपलब्ध ही नहीं है । अतः असंतोष अनुभव करने पर मतदान से विरत रहने का मैं पक्षधर हूं । जो संतुष्ट हो उसके मतदान का अवश्य अर्थ है ।
वस्तुतः मैं अपने राजनेताओं-जनप्रतिनिधियों से सफल लोकतंत्र की उम्मींद ही नहीं करता । इसके कारण हैं । अगर निर्वाचन आयोग की कार्यशैली पर नजर डालें तो आप अवश्य ही उसमें सुधार हुआ है । आरंभिक दौर में यह आयोग एक ही व्यक्ति के हाथों में था और चुनाव के दरमियान की तमाम प्रिय-अप्रिय वारिदातों पर उसका नियंत्रण संतोषजनक नहीं था । बाद के वर्षों में आयोग का रूख कड़ा हो गया और तीन-सदस्यीय पा लेने के बाद उसकी निष्पक्षता और कार्यकुशलता के प्रति लोगों का भरोसा बढ़ गया । पहले कमजोर वर्ग के लोग मताधिकार नहीं कर पाते थे और बाहुबल एवं बूथ-कैप्चरिंग जैसी घटनाएं आम बातें थीं । किंतु पिछले करीब दो दशक में उसकी कार्यपद्धति में उल्लेखनीय सुधार हुआ है । आज शायद ही कोई निर्वाचन आयोग पर उंगली उठाता हो । तो क्या कुल मिलाकर हमारे लोकतंत्र की गुणवत्ता बढ़ी है ? जी नहीं, राजनीति में गिरावट आयी है और आयोग उसे विवश हो देखता है । कौन है जिम्मेदार इस गिरावट के लिए ? निःसंदेह आज के राजनेता !
मौजूदा राजनीति में एक नहीं अनेकों दोष हैं । मैं अभी एक ही दोष की चर्चा करता हूं । जब नेताओं के अपने-अपने राजनैतिक दलों के भीतर ही लोकतंत्र न हो, तब वे लोकतांत्रिक मूल्यों को देश के स्तर पर भला क्या स्थापित करेंगे ! देश के भीतर राजनैतिक दलों की भरमार है, कुछ ज्ञात तो कुछ प्रायः अज्ञात, कोई चालीस-पचास दल मेरे अनुमान से । इनमें से कितने दल दावा कर सकते हैं कि उनके भीतर लोकतंत्र है और दल के अंदर विशुद्ध लोकतांत्रिक विधि से निर्णय लिये जाते हैं ? गौर से देखने से पता चलता है कि मुश्किल से चार-पांच दलों को छोड़कर शेष किसी न किसी व्यक्ति पर केंद्रित हैं । इन दलों के प्रादुर्भाव पर दृष्टि डालें तो पायेंगे कि वे किसी न किसी राजनेता की महत्त्वाकांक्षा से जन्मे हैं । ये महत्त्वाकांक्षा देश को लेकर नहीं बल्कि सत्ता हथियाने की लालसा से जुड़ी होती हैं, एक-दो अपवादों, यदि कोई हों तो, उन्हें छोड़कर । अभी तक की कहानी तो यही है कि जब भी किसी व्यक्ति को लगा कि दल के भीतर रहकर वह अपनी आकांक्षापूर्ति नहीं कर सकेगा और सत्ता उसके हाथ में नहीं आ पायेगी, अथवा दल के भीतर वह अपना वर्चस्व स्थापित नहीं कर सकेगा, तब उसने अपना नया संगठन खड़ा कर दिया ।
ऐसे हर छोटे-बड़े दल में मुखिया के वे ही अनुयायी रहते हैं जो उसकी हां में हां मिलावें । जब भी किसी ने विरोध किया, या एक प्रकार की चुनौती प्रस्तुत कर दी, तब उसे चुप करा देने या अंत में बाहर का रास्ता दिखा देने की नीति इन दलों ने अभी तक अपनायी है । इन दलों में न तो मुखिया का चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से होता है और न किसी मुद्दे पर नीतिगत निर्णय का । आश्चर्य होता है कि मुखिया के चुनाव में दिखावे भर के लिए भी कोई प्रतिस्पर्धी दावा नहीं पेश करता है । तो वैसा है उनके भीतर का लोकतंत्र ! ‘मैं ही सदा के लिए मुखिया बना रहूं’ इस आशय की योजना मुखिया और उसकी छत्रछाया में बने रहने पर ही पूर्ण संतुष्ट तथा सुरक्षित महसूस करने वाले सदस्यों द्वारा बना ली जाती है । क्यों प्रायः हर राजनैतिक दल की कमान एक ही व्यक्ति के हाथों में वर्षों तक बनी रहती है ? सीधा-सा उत्तर दिया जायेगा कि दूसरा कोई भी बराबर की योग्यता नहीं रखता । क्यों योग्य नेताओं का अभाव रहता है किसी दल में ? क्यों नहीं कोई अन्य व्यक्ति लोकतांत्रिक तरीके से बराबरी पर खड़ा नजर आता है ? और यदि किन्हीं कारणों से परिस्थितियां अनुकूल न दिखें तो मुखिया की गद्दी उसके पारिवारिक सदस्यों में से ही किसी एक को देने की परंपरा इन दलों ने अपनायी है, ठीक उसी अंदाज में जैसे किसी जमाने में राजे-महाराजे अपने बेटे-बेटियों को राजगद्दी सोंपा करते थे ।
राजनीति के संदर्भ में परिवारवाद की बातें वार्ता-माध्यमों (न्यूज मीडिया) में तो उठती ही रहीं हैं, खुद राजनेता भी इसे स्वीकारते हैं । क्रांग्रेस दल तो इसका ज्वलंत उदाहरण रहा ही है, किंतु अन्य अनेकों दल भी अपवाद नहीं हैं । जम्मू-कश्मीर के पी.डी.पी., एन.सी.पी., उत्तर प्रदेश की स.पा., बिहार का रा.द. आदि भी ‘उत्तम’ दृष्टांत प्रस्तुत करते हैं । महाराष्ट्र की म.न.सा. का जन्म भी शिवसेना से परिवारवादजन्य झगड़े से ही हुआ था । और सुनने में आता है कि तमिलनाडु की डी.एम.के. में भी भाई-भाई में उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष चल रहा है । वहां की ए.आई.ए.डी.एम.के. और उ.प्र. की ब.स.पा. का मामला कुछ पेचीदा है, क्योंकि इन दलों की राजनेत्रियों के स्पष्टतः परिभाषित परिवार नहीं हैं । मेरे मत में प्रायः सभी दलों के प्रमुख लेता धृतराष्ट्रीय संतानमोह से ग्रस्त हैं । तो क्या यही प्रशंस्य लोकतंत्र है ?
मेरा जोर इस सवाल पर है कि जो राजनैतिक दल अपने भीतर ही लोकतंत्र की हिमायत नहीं करते वे क्या देश में सच्चा लोकतंत्र स्थापित करेंगे । चूंकि घूमफिर कर लगभग सभी राजनेताओं की निष्ठा अपने-अपने दलों के प्रति रहती है (जब तक उन्हें असंतोष न घेर ले !), अतः मैं समझता हूं कि मेरा मत उस व्यक्ति को जा रहा होता है जो स्वयं दल के भीतर लोकतंत्र स्थापित करने का इच्छुक नहीं है । ऐसे में मैं वोट न देना चाहूं तो मुझे यह अधिकार होना चाहिये । आज की तारीख में तो ऐसा नहीं है, किंतु भविष्य में यह अधिकार मिल सकता है । मेरी यह उम्मींद याहू/जागरण के उस समाचार पर आधारित है जो आज ही मुझे पढ़ने को मिला । समाचार के अनुसार ‘पिपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिवर्टीज’ की तत्संबंधित याचिका को उच्चतम न्यायालय ने अपने वृहद् पीठ को विचारार्थ सोंप रखा है । याचिका में मांग की गयी है कि ऐसा कानून बने जिसके तहत मतदाता ‘किसी को भी वोट नहीं’ का विकल्प चुन सके । – योगेन्द्र
अंतरजाल पर टहलते हुए अचानक आपके ब्लॉग पर आ गया
सचमुच बहुत जानकारी परक है आपका ब्लॉग
आगे के लेखों का इंतज़ार रहेगा
aap ka apna abhimat hai.problem se dur bhagnese kum hone ke bajaya jyada hoti hai .if we r not part of soluation so we r problem.mail me
problem se door bhagne se problem kum nahi hoti hai.www.gaurav21bajpayee.googlespages.com/politicsguru.com
today not only in india butalso worlds r struggling this thing Doordarshi aur Kushal netretv…….htpp://gaurav21bajpayee.googlespage.com/politicsguru.com
आज न केवल भारत बल्कि दुनिआ जिस चीज की कमी से जूझ रही है वह् है दूर−दर्शी और कुशल नेत्रत्व आज के नेता सिर्फ शक्ति ,राजनितिक जोड्−तोड् उससे जुडे खेल मे ही रुचि रखते है|जिनके अपने निहित स्वार्थ होते है जिनका वैश्वविक कल्यान से कोइ लेना देना नही है अवैध सन्साधेनो से कमाये गये काले धन पर हमारी राजनैतिक पार्टिया पोशित है|सफेदपोश नौकरशाहौ और राजनेताओ ने विकास की रफ्तार को कुन्द किया है|दुर्भाग्य से हुम ऐसे तन्त्र को बनाने मे नाकामयाब रहे है जो बुरे को अच्छा बनने को प्रोत्साहित करे बजाय इसके हमने ऐसा तन्त्र स्थापित कर लिया है जो अच्छे को भी भृश्ट,अनैतिक,और स्वार्थी बनने को बाध्य करता है|राजनीतिक दल भ्रश्ट और आपराधिक तन्त्र मे इतने गहरे तक डूबी है कि व्यवस्था के बडे बद्लाव के बारे मे सोचा भी नही जा सकता| एक पहल−क्या आप ही वह व्यक्तित्व है जो भारत देश को न केवल विकिसित अपितु विश्व−गुरु बनाने के लिये तैयार है|www.politicsguru21.com आवश्यकता है| एक इलैक्ट्रानिक चैनल पार्टनर / एजेंसी / इलेक्ट्रॉनिक मीडिया