इस लेखशृंखला की पिछली किस्त में मैंने रेडियो बीबीसी के एक आलेख का जिक्र करते हुए इस बात का खुलासा किया था कि भौगोलिक दृष्टि एक अपना यह देश वस्तुतः दो देशों से मिलकर बना हैः एक इंडिया तो दूसरा भारत । दोनों परस्पर इस कदर मिले हुये हैं कि दोनों को अलग करके देख पाना सरल नहीं है । लेकिन वे हैं अलग ! क्या अंतर है दोनों में ?
मैं यहां जो कहने जा रहा हूं उसे आप शायद ही स्वीकारें । यदि मेरी बातों से निन्यानबे प्रतिशत लोग असहमत हों तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा । भारत को इंडिया से अलग करके देखने की मेरी कोशिश कइयों को नागवार लगेगी, और कई इसे मेरी सनक कहकर खारिज कर देंगे । लेकिन भारत इंडिया नहीं है यह कहने वाला मैं अकेला नहीं हूं । (देखें एल. सी. जैन के विचार ।)
तो अंतर क्या है इन दोनों में ? क्या अंतर है इंडियन तथा भारतीय होने में ? कौन है इंडियन और कौन बचता है भारतीय के रूप में ? सवाल उठाना लाजिमी है । मैं यह स्पष्ट कर दूं कि यह अंतर प्रशासनिक स्तर पर स्वीकृत अथवा घोषित बात नहीं है । देश का संविधान भी कहीं इंडिया एवं भारत को अलग-अलग करके नहीं देखता । उसकी दृष्टि में तो सभी समान हैं । वह तो एक ऐसी व्यवस्था की वकालत करता है जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों के बीच विषमता न हो, विसंगति न हो । किंतु संविधान की बातें आदर्शों की बातें हैं । वास्तविकता में समाज बुरी तरह विभाजित है, और यह विभाजन इंडिया तथा भारत के रूप में हमें देखने को मिल रहा है । मैं दोनों के बीच के अंतर को बखूबी महसूस करता हूं, पर उसका सटीक वर्णन कर पाने में स्वयं को अक्षम पाता हूं । इसे मैं अनुभूति का मामला अधिक मानता हूं । जो बारीकी से इस देश को देखने की कोशिश करेगा उसे अंतर का एहसास हो जायेगा । यह स्पष्ट कर दूं कि इंडिया तथा भारत के बीच की विभाजक रेखा धुंधली और चौड़ी है । इस रेखा के एक ओर इंडिया है तो दूसरी ओर भारत है । एक तरफ साफ तौर पर इंडियन हैं तो दूसरी तरफ ठेठ भारतीय । विभाजक रेखा के पास वे सब हैं जो न तो पूरे भारतीय रह गये हैं और न ही अभी इंडियन बन सके हैं । ये वे लोग हैं जो इंडियन बनने की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं, अतः जिन्हें आधा इंडियन और आधा भारतीय कहा जा सकता है । वे कुछ हद तक इंडियन बन चुके हैं, तो उनमें काफी कुछ भारतीयता के लक्षण अभी बचे रह गये हैं । कंप्यूटर पर बैठकर इंटरनेट का लुत्फ उठा रहे आप और हम कदाचित् इसी वर्ग में आते हैं ।
आरंभ में उल्लिखित संदर्भगत बीबीसी लेख की भाषा में यह अंतर यूं वर्णित हैः
“इंडिया वो है जो महानगरों की अट्टालिकाओं में बसा करता था और अब तेजी से छोटे शहरों में भी दिखने लगा है. इंडिया विकसित है. इसमें देश की जनसंख्या का इतना प्रतिशत है जिसे ऊंगलियों पर गिना जा सके. उच्च आय वर्ग वाला तमाम सुख सुविधाओं से लैस. इनके शहर योजनाओं के अनुसार बसते हैं और अगर बिना योजनाओं के बदलते हैं तो उसे योजना में शामिल कर लिया जाता है ।”
और आगे
“इसके ठीक पास रहता है भारत. यह विकाससील है. इसमें आबादी का वो हिस्सा रहता है जो इंडिया की रोजमर्रा की जरूरतों की आपूर्ति करता है. मसलन घरेलू काम करने वाली बाई, कार की सफाई करने वाला, दूध वाला, धोबी, महाअट्टालिकाओं के गार्ड, इलेट्रिशियन और प्लंबर आदि-आदि. भारत में रहने वाले के पास न अपना कहने को जमीं होती है और न कोई छत. वो झुग्गियों में रहता है, अवैध बस्तियों में या फिर शहर के कोने में बच गये पुराने किसी शहरी से गांव में.”
आगे भी बहुत कुछ कहा है लेख में । इंडिया और भारत का यह अंतर संपन्नता से जुड़ा जरूर है, किंतु केवल वहीं जाकर समाप्त नहीं हो जाता है । असल अंतर है मानसिकता था, चाहत का, और समाज के प्रति दृृष्टि तथा उसके संबंधों का । इंडिया खुद को अमेरिका के स्तर पर देखने का शौकीन है । वह स्वयं को ‘अमेरिकनाइज’ या ‘इंग्लिशाइज’ करने में काफी हद तक सफल हो चुका है । उसके सामाजिक मूल्य, जीवन शैली, परंपराओं और संस्कृति के प्रति दृष्टिकोण आदि काफी कुछ बदल चुके हैं । घोषित रूप से कोई भी सामाजिक भेदभाव की वकालत नहीं कर सकता है । संविधान इसकी इजाजत नहीं देता है । किंतु अघोषित रूप से इंडिया भारत से भिन्न दिखना चाहता है और जनतांत्रिक स्वतंत्रता के नाम पर वह ऐसा कुछ करने की छूट चाहता है जो उसे समाज के बचे वर्ग, भारत, से भिन्न और श्रेष्ठतर दिख सके ।
देश की शासकीय तथा प्रशासनिक व्यवस्था की जिम्मेदारी इसी इंडिया के हाथ में है, और उसने अपने इस अधिकार का प्रयोग इंडिया तथा भारत के भेद को घटाने के बजाय बढ़ाने में किया है । सो कैसे ? इसकी चर्चा अगली बार । – योगेन्द्र