लोकतंत्र की व्यथाकथा, दस – अपर्याप्त मतदान प्रतिशत, कारण?

इस बार अपने देश का लोकसभा चुनाव पिछले चुनावों से काफी भिन्न-सा नजर आ रहा है । यूं तो पिछले कुछ वर्षों से बहुचरणीय चुनाव प्रक्रिया अपनाई जा रही है, जिसके पीछे मतदान से संबंधित सुरक्षा की समस्या प्रमुख कारण माना जाता है, तथापि इस बार का चुनाव अपेक्षया अतिदीर्घकालिक हो चुका है । अलग-अलग क्षेत्रों में अप्रैल १६, २३, तथा ३०, और मई ७ एवं १३ को संपन्न होने वाले चुनावों के बीच एक-एक सप्ताह का अंतर वाकई बहुत अधिक है । किंतु निर्वाचन आयोग के तत्संबंधित निर्णय के अपने कारण हैं ।

दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि चुनाव अप्रैल-मई की गर्मी में हो रहे हैं और इस बार यह गर्मी कुछ अधिक ही मालूम पड़ रही है ।

तीसरी दिलचस्प बात यह है कि इस बार निर्वाचन आयोग और अन्य संस्थाओं ने लोगों को मतदान के कर्तव्य की खूब याद दिलायी है । अखबारों और टीवी चैनलों पर बीच-बीच में यही संदेश देखने-सुनने को मिल रहा है कि आप वोट अवश्य दीजिए, कि पप्पू मत बनिए, कि यह आपका अधिकार है, कि सही व्यक्ति को चुनकर लोकसभा में भेजिए, इत्यादि ।

और चौथा रोचक तथ्य यह है कि मतदाताओं को प्रेरित करने के तमाम प्रयासों के बावजूद मतदान प्रतिशत कई स्थानों पर बहुत कम, निराशाजनक, तथा चिंतनीय स्तर पर पहुंच चुका है । कई राज्यों में यह प्रतिशत ४५ के आसपास रहा है । लखनऊ और कानपुर जैसे महानगरों में यह ४० से भी नीचे चला गया । क्या कारण रहे हैं ? चर्चा तो यही है कि भीषण गर्मी के कारण लोगों ने आराम फरमाना अधिक ठीक समझा । क्या वाकई बात इतनी सीधी है ? या मामला अधिक गंभीर है । इस पर विचार होना चाहिए ।

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