और (आज की ताजा खबर) अंततः अजमल कसाब को न्यायालय ने फांसी की सजा सुना ही दी ।
26/11 की आतंकी घटना
मुंबई में हुई 26 नवंबर 2008 की आतंकी घटना में 166 लोग मारे गए थे । पाकिस्तान में सक्रिय ‘लश्कर-ए-तैय्यबा’ से प्रशिक्षित 10 आतंकियों ने घटना को अंजाम दिया था, जिनमें से 9 तो मारे गए थे । उनमें से अजमल कसाब अकेला था, जिसे जिंदा पकड़ लिया गया था । और तब चल पड़ा उस पर त्वरित गति से अदालती मामला, निरपराध लोगों की नृशंस हत्या एवं भारत राष्ट्र के विरुद्ध ‘हमले’ के नाम पर ।
पिछले तीन-चार दिनों से समाचार माध्यमों पर उसके मामले की चर्चा छाई रही । लोग उत्सुक तथा चिंतित थे कि उसे सजा-ए-मौत मिलती है कि नहीं । माना जाता है कि सरकारी वकील, उज्ज्वल निकम, ने सजा दिलाने में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी । जिन लोगों को टेलीविजन चैनलों ने इस मामले में अपनी राय व्यक्त करने का अवसर दिया, उनमें से प्रायः सभी ने उसके लिए किसी प्रकार की रियायत न देने की बात की । सभी अधीर थे और मौत की सजा तो सभी चाहते थे । टीवी पर कुछ लोगों को तो मैंने यह मांग करते हुए भी सुना कि उसे तिल-तिल कर मरने की सजा देनी चाहिए । खैर, ऐसी सजा का विधान तो अपनी न्यायिक व्यवस्था में शायद नहीं है । न्यायाधीश एम.मल. तहलियानी ने तो उसे तीन दिन पहले ही दोषी घोषित कर दिया था; उसे बस आज सजा सुना दी । उसे कुल 86 आरोपों के संदर्भ में सजा दी गयी, पांच मामलों में मौत की, तो शेष में उम्रकैद अथवा कुछ सालों की सजा ।
कसाब का मामला कई मामलों में रोचक और कुछ माने में नए किस्म का था । कसाब को अदालती लड़ाई लड़ने के लिए पूरी मदद की । उसको सरकारी खर्चे पर वकील दिये गये । पहले सुश्री अंजलि वाघमारे । किंचित् तकनीकी कारणों से उन्हें दायित्व से हटाया गया । उनके स्थान पर श्री अब्बास काजमी कसाब के वकील नियुक्त हुए । उन्हें भी कालांतर में दायित्वमुक्त होना पड़ा । और फिर उनके स्थान पर आए श्री के.पी. पवार, जो अपनी जिरह से कसाब को बचा नहीं पाए ।
खर्चीला कैदी कसाब
सुनते हैं कि कसाब की सुरक्षा को लेकर उस पर कोई 30-32 करोड़ रुपये (आठ-साड़े-आठ लाख रुपये प्रतिदिन) खर्च हो चुके हैं । उसके लिए पुणें की आर्थर रोड जेल एवं जे जे अस्पताल में विशेष ‘बुलेट-प्रूफ’ कोठरियां तक बनवाई गईं । कसाब के द्वारा किए गए अपराध से देश को जो नुकसान होना था वह तो हुआ ही, उसके अतिरिक्त वह बाद में भी एक ‘खर्चीला’ कैदी साबित हुआ है । (यहां क्लिक करें)
फांसी का इंतजार
कसाब को मौत की सजा सुना दी गयी है । यह सजा अधिसंख्य देशवासियों को भावनात्मक स्तर पर तसल्ली अवश्य देगी । लेकिन कुछ वकीलों के मतानुसार अपराधियों के मन में मौत की सजा ताउम्र कैद की सजा से अधिक भय पैदा करता हो ऐसा शायद होता नहीं है । उससे भी अधिक महत्त्व की बात तो यह है कि यह सजा कसाब को फिलहाल नहीं मिलने वाली है । लोग चाहते हैं कि सजा का कार्यान्वयन तुरंत हो, परंतु आवश्यक कानूनी प्रक्रिया तो अपना वक्त लेगी ही, क्योंकि भारतीय ‘उदार’ कानूनी व्यवस्था उसे प्रथमतः मुंबई उच्च न्यायालय और फिर देश के उच्चतम न्यायालय में मौजूदा निर्णय के विरुद्ध अपील का अवसर देगी । इतना ही नहीं, अंत में वह राष्ट्रपति से ‘क्षमादान’ की प्रार्थना भी कर सकता है (आइबीएन समाचार)। इतने सब में कितने वर्ष गुजरेंगे कोई ठीक से बता नहीं सकता ।
कसाब के मामले पर टीवी चैनलों पर चल रही बहस से मुझे यही लगा कि देशवासी अपनी केंद्र सरकार के रवैये से नाखुश और निराश है । मौत की सजा पाये लोगों की सजा पर अंतिम मुहर लगाने के कई मामले सरकार के पास पड़े हैं (बीबीसी समाचार) । देश में ऐसी सजा अंतिम वार 2004 में दी गयी थी, धनंजय चटर्जी नामक व्यक्ति को ।
लोगों के बीच एक गंभीर धारणा बनी हुई है कि अपनी सरकारें इस मामले में ढुलमुल और टालू नीति अपनाती आ रही हैं । वे मामलों को फटाफट निबटाने से बचती आ रही है, और उन मामलों में भी टालमटोल कर रही हैं जो राष्ट्र पर ही हमला से संबंधित हों । इसी कारण कसाब के मामले में भी लोग सरकारी रवैये के प्रति सशंकित हैं ।
‘नैशनल कॉंफडरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स ऑर्गनाइजेशन्स’ की वेब-साइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार मौत की सजा पाये 44 कैदियों में से 23 के ‘दया-याचिकाएं’ पत्र विचाराधीन हैं । इनमें से 22 को विचार करके राष्ट्रपति के पास भेजा जा चुका है, एक पर सक्रिय कार्य मंत्रालय में हो रहा है । अब विलंब किस बात पर हो रहा है यह स्पष्ट नहीं है ।
कई लोगों के मत में मौत की सजा का प्रावधान ही गलत है । कुछ लोग इसे सभ्य समाज के अनुकूल नहीं मानते हैं । उनके अनुसार यह सजा व्यक्ति को सुधरने का मौका नहीं देता है । यह भी कहा जाता है कि किसी आदमी की जान लेने का अधिकार किसी और को कैसे हो सकता है । ठीक है, लेकिन तर्क तो यह भी दिया जा सकता है कि किसी को सींखचों के पीछे बंद करने का भी तो अधिकार किसी और को क्यों हो । किंतु एक सवाल यह भी उठता है कि सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए सजा तो होनी ही चाहिए । क्या सजा हो, कितनी हो, और कौन सजा दे, जैसे सवालों पर बहस की ही जा सकती है । अगर मृत्युदंड ठीक नहीं तो उसे समाप्त कर देना चाहिए । किंतु अपनी सरकारें उस दिशा में भी तो कदम नहीं उठा रही हैं ।
बहरहाल देशवासियों की चिंता सकारण है । न जाने कसाब की सुरक्षा पर अभी देश को कितने करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे । चिंता तो यह भी जताई जाती है कि कहीं कसाब के आका उसको छुड़ाने के लिए किसी हवाई जहाज का अपहरण न कर बैठें । चिंता इस बात पर भी व्यक्त की जाती है कि उसे सजा न दे पाना इस देश के कमजोर होने का संदेश विश्व को देता है । आतंकवाद जैसे मुद्दे पर सरकार को कठोर दिखना चाहिए, किंतु ऐसा होता हुआ लगता नहीं । यह इस देश की विफल राजनीति को द्योतक है । – योगेन्द्र जोशी
aapki chinta jayaz hai. lekin kya apke aur hamare haath mein kuch nahi hai. pehle high court, phir supreem court (2 times) phir PRESIDENT. DESH KI ABROO (SANDAD)PAR HAMLA KARNE WALA AB TAK ZINDA HAI.