हिंदी (हिन्दी) दिवस यानी Hindi Day, 14 Sept 2021

“हिन्दी दिवस” की सार्थकता पर संदेह व्यक्त करते हुए लिखित ब्लॉग-पोस्ट।

हिन्दी तथा कुछ और भी

1. हिंदी दिवस

आज 14 सितंबर हिंदी दिवस है, अर्थात् Hindi Day(?)! इसी दिन हिन्दी को राजभाषा की उपाधि मिली थी (सन् 1950)। यह दिवस किस वर्ष से मनाया जा रहा है यह मुझे पता नहीं। शायद सन् 1950 के बाद प्रतिवर्ष मनाया जा रहा हो। इसमें मेरी दिलचस्पी 30-35 सालों से है जब से मैं हिंदी लेखन-पठन में विशेष रुचि लेने लगा (फ्रांसीसी शहर पेरिस के अनुभव के बाद)।

आरंभ में मुझे यह दिवस सार्थक एवं आशाप्रद लगा, किंतु जैसे-जैसे समय बीतता गया मुझे इस दिवस के औचित्य पर गंभीर शंका होने लगी। समय के साथ मुझे लगने लगा कि अंग्रेजी की महत्ता दिनबदिन बढ़ ही रही है और लोगों का उसके प्रति लगाव भी बढ़ने लगा है। हर क्षेत्र में उसका प्रयोग घटने के बजाये बढ़ ही रहा है। यहां तक कि सरकारें भी अघोषित तरीके से अंग्रेजी प्रयोग को बढ़ावा देती आ रही हैं। अब तो वैश्विक…

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परीक्षा में नकल – तब और अब

जिंदगी बस यही है

परीक्षा में नकल – तब और अब

आज से ५९ वर्ष पहले की एक घटना मुझे याद आती है जब मैं पर्वतीय राज्य उत्तराखंड के एक विद्यालय का छात्र था। उस समय उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा हुआ करता था। मुझे यू.पी. बोर्ड के हाई स्कूल (१०वीं कक्षा) की परीक्षा देनी थी।

मैं एक छोटे-से गांव में जन्मा था और उसी के पास की पाठशाला (प्राथमिक विद्यालय) में मेरी आरंभिक शिक्षा-दीक्षा हुई थी। हाई स्कूल के लिए मुझे गांव से करीब ७-८ किलोमीटर दूर के विद्यालय जाना पड़ा था। उस पर्वतीय क्षेत्र में आनेजाने के लिए आम तौर पर पगडंडी वाले ही रास्ते होते थे। अब तो पर्वतीय क्षेत्रों में भी सड़कों का जाल बिछ चुका है, इसलिए कुछ राहत जरूर है। आवागमन की समुचित सुविधा के अभाव में अपने विद्यालय के निकट भाड़े (किराये) पर रहना मेरी विवशता थी।

उस समय देश को स्वतंत्र हुए मात्र १४-१५ वर्ष हुए…

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सुकून का एहसास

किसी अजनबी से आत्मीयता के साथ जुड़ने का मौका आये और उससे मुलाकात का अंत सुखद रहे तो सुकून का एहसास होता है। (कहानी)

जिंदगी बस यही है

त्रिलोचन बाबू ने घर के मुख्य प्रवेशद्वार (गेट) के खटखटाये जाने की आवाज सुनी। आम तौर पर लोग गेट के बगल में लगी घंटी का बटन दबाते हैं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने सोचा कि कोई अजनबी होगा जिसे घंटी का अंदाजा न रहा हो। अखबार का हाथ में पकड़ा हुआ पन्ना फेंकते हुए-से अंदाज में उन्होंने सोफे के एक तरफ रखा और उठकर कमरे का दरवाजा खोलने पहुंचे। गर्दन बाहर निकालते हुआ गेट की तरफ देखा। बाहर कोई खड़ा था। वे बाहर आये और गेट की तरफ बढ़े। कोई नया चेहरा था जिसे उन्होंने शायद पहले कभी देखा नहीं था। सवाल किया, “मैंने आपको पहचाना नहीं। मुझसे काम है या किसी और के बारे में …?” कहते हुए गेट का एक पल्ला खोल दिया।

बाहर खड़े आगंतुक ने कहा, “दरअसल आपसे पानी मांगना चाहता था। गरमी है; प्यास लगी है।”

त्रिलोचन बाबू ने उक्त आगंतुक को ऊपर से नीचे…

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साइकिल में गुन बहुत हैं …

साइकिल में गुन बहुत हैं सदा राखिए संग।

पेट्रोल की जहमत नहीं बदलें जीने का ढंग॥

साइकिल के “गुन-अवगुनों” की बात करने से पहले में यह बताना चाहूंगा कि साइकिल से मेरा रिश्ता कब और कैसे स्थापित हुआ।

पर्वतीय पृष्ठभूमि

मेरा जन्म उत्तराखंड (तब उत्तर प्रदेश) के सुदूर पर्वतीय क्षेत्र के छोटे-से गांव में तब हुआ था, जब अपना देश भारत (यानी इंडिया) बस स्वतंत्र ही हुआ था। उस काल में वहां सड़कों का जाल नहीं था। निकटतम बस अड्डा पैदल मार्ग से लगभग १७ मील (करीब ३२ कि.मी.) दूर हुआ करता था। वह समय था जब शेर-छटांक, गज-फुट, मील, सोलह आने (६४ पैसे) के अंग्रेजी काल के माप-तौल की इकाइयां चलन में थीं। आज के बच्चे-युवा इनका नाम भी नहीं जानते हों तो ताज्जुब नहीं। मेरे जीवन के शुरुआती १३-१४ वर्ष गांव के माहौल में ही बीते थे। कक्षा ५ तक की आरंभिक शिक्षा भी गांव की ही पाठशाला में हुई थी। हम लोग प्राइमरी स्कूल या प्रारंभिक विद्यालय नहीं कहते थे, भले ही इन संबोधनों से परिचित थे। बिजली, टेलीफोन, रेलगाड़ी, बस, साइकिल, आदि शब्द हम बच्चे सुनते तो थे किंतु ये सब क्या होते होंगे की सही कल्पना नहीं कर पाते थे। उस पर्वतीय क्षेत्र की चढ़ाई-ढलान वाली पगडंडियों पर साइकिल का कोई काम नहीं था। कहीँ-कहीं ३-४ फुट चौडे रास्ते भी होते थे जिन पर खच्चर/घोड़े से सामान या सवारी ढोने का कार्य लिया था। यह सब कहने का तात्पर्य यह है कि आरंभिक किशोरावस्था तक साइकिल का साक्षात्कार मैंने नहीं किया था।

छात्रजीवन और साइकिल

जब गांव से ८-१० कि.मी. दूर के विद्यालय से हाई-स्कूल (१०वीं) की परीक्षा उत्तीर्ण करके जब कानपुर पहुंचा आगे की शिक्षा के लिए तब मेरा साइकिल से असल परिचय हुआ। परिचय ही नहीं विद्यालय आने-जाने के लिए गिरते-पड़ते उसे सीखा भी। और फिर वह अपनी सवारी बन गयी अभी तक के जीवन भार के लिए। अभी तक के जीवन भर के लिए इसलिए कह रहा हूं क्योंकि कल किसी ने देखा नहीं, शारीरिक सामर्थ्य कितनी रहेगी कोई बता नहीं सकता।

यह बताना भी समीचीन होगा कि उस जमाने में तांगा, रिक्शा, बस, और साइकिल ही शहरी आवागमन के साधन होते थे, या फिर पैदल ही रास्ता नापा जाता था। स्कूटर, बाइक और कारें किस्मत वालों के पास देखने को मिलते थे। इनकी उपलब्धता भी बेहद कम थी। शहरों में जाम की समस्या शायद ही कहीं सुनने को मिलती होगी। यही साइकिल मेरे और मेरे सहपाठियों के आवागमन का साधन बना रह एक लंबे समय तक। विश्वविद्यालय तक की शिक्षा लेने और उसके बाद शोधछात्र के तौर पर और २-४ साल बाद विश्वविद्यालय में भौतिकी (physics) के शिक्षक के तौर पर कार्यरत होने के बाद भी मेरा साइकिल चलाना वैसे ही चलता था जैसे मेरे अन्य संगीसाथियों का। विकल्प भी कहां थे? वह काल था जब स्कूटर ब्लैक में मिलते थे, विशेषतः वेस्पा मॉडल, दुगुने-डेड़ गुने दाम पर। मुझे याद है यह सुना हुआ कि मेरे एक-दो वरिष्ठ शिक्षक जब कभी विदेश जाते थे तो वहां से मिले डॉलरों से स्कूटर खरीदते थे और कालांतर में उसे ब्लैक में बेच देते थे। सन् १९७० के दशक में सरकारों ने सीमित संख्या में स्कूटर-निर्माण की छूट निर्माताओं को दी और वे लोगों को उपलब्ध होने लगे। मेरे संगी साथियों ने भी अपनी जमा-पूंजी से स्कूटर खरीदे, और फिर उनमें से कुछ की साइकिल की आदत धीरे-धीरे छूट ही गयी। बढ़ती संपन्नता के साथ साइकिल की जगह पहले स्कूटर ने और बाद में कार ने ली।

साइकिल और स्कूटर साथ-साथ

मैंने भी १९८१ में एक स्कूटर खरीदा, किंतु साइकिल छोड़ी नहीं। विश्वविद्यालय या अन्यत्र जाने पर कोई एक इस्तेमाल कर लेता था। जहां किसी और को साथ ले चलना होता, या शीघ्रता से कहीं पहुंचना होता अथवा अधिक दूर जाना होता तो स्कूटर ही प्रयोग में लेता था। अन्यथा कभी साइकिल तो कभी स्कूटर। मेरे शहर वाराणसी की दुर्व्यवस्थित यातायात व्यवस्था वाली सड़कों ने स्कूटर चलाने की मेरी हिम्मत वर्षों पहले छीन ली थी। जीवन के ७३ वसंत पार कर चुका मैं अब स्कूटर नहीं चलाता। बस एकमात्र साइकिल ही मेरा निजी वाहन है। मैं आवश्यकतानुसार पैडल-रिक्शा, ऑटोरिक्शा, अथवा टैक्सी का इस्तेमाल कर लेता हूं।

जैसा कह चुका हूं मेरे परिचितों, संगी-साथियों और सहकर्मियों में से कई ने कारें ले लीं और साइकिलें छोड़ दीं। एक बार जब विश्वविद्यालय कर्मचारियों का वेतन-पुनरीक्षण एवं वेतन-वृद्धि हुई तो मुझे साथियों ने सलाह दी थी कि मैं भी कार खरीद लूं। कार चलाना तो मैंने कभी सीखी नहीं। और मेरे शहर वाराणसी की बेतरतीब तथा जाम से ग्रस्त यातायात व्यवस्था में मुझे उसकी कोई उपयोगी नहीं दिखी। इसलिए मैं ‘बे’कार ही रहा।

अब मैं इस लेख के शीर्षक में व्यक्त असली मुद्दे पर आता हूं। जब मैंने करीब २० साल पहले पर्यावरण (environment), प्रदूषण (pollution), पारिस्थितिकी (ecology) एवं प्राकृतिक संसाधनों (natural resources) जैसे मुद्दों पर जिज्ञासावश जानकारी जुटानी शुरू की तो मुझे एहसास हुआ कि वस्तुस्थिति काफी गंभीर है। लगभग वही समय था जब मेरे हृदयरोग का निदान भी हुआ और डाक्टरी सलाह पर दवाइयों के सेवन के साथ मैंने तेज गति से टहलना (brisk walking) भी आरंभ किया। आज हूं तो हृद्रोगी, लेकिन खुद को हृद्रोगी के रूप में नहीं देखता। इस रोग के होते हुए भी मैं १००-५० नहीं १०००-१२०० सीढ़ियां आराम से चढ़ लेता हूं।

उसी समय मुझे शारीरिक श्रम तथा साइकिल की उपयोगिता विशेष तौर पर समझ में आने लगी। तब की अनुभूति ने मुझे अधिकाधिक पैदल चलने और साइकिल चलाने के लिए प्रेरित किया। साइकिल की उपयोगिता के दूसरे पहलू भी मुझे समझ मैं आने लगे। आगे उसी सब का संक्षेप में उल्लेख कर रहा हूं।

साइकिल में गुन बहुत

किसी वस्तु अथवा कार्य से क्या लाभ हैं इसका आकलन हर व्यक्ति अपनी प्राथमिकताओं और पसंदगी के आधार पर तय करता है। बहुत संभव है कि जिसे में लाभ कहूं उसे आप कोई लाभ नहीं कहकर खारिज कर दें। स्पष्ट है कि मैं अपनी सोच के अनुसार साइकिल के लाभ गिनाउंगा।

(२) यह ऐसा साधन है जिसके इस्तेमाल करने पर शारीरिक व्यायाम भी होता है। आजकल लोग शारीरिक श्रम से परहेज करते हैं और शिकायत करते हैं कि उन्हें हृदरोग जैसी शिकायत है। शारीरिक श्रम के अभाव में रोगी बनने की संभावना बढ़ जाती है यह चिकित्सक भी कहते हैं। साइकिल का प्रयोग करने पर जिम जाने की जरूरत नहीं। वृद्धावस्था में साइकिल चलाना या टहलना ही बेहतर व्यायाम है।

(१) साइकिल यातायात का एक सस्ता साधन है। इंधन-चालित वाहनों की तुलना में उसकी कीमत काफी कम रहती है। उसका रखरखाव का खर्चा भी कुछ खास नहीं होता है। इंधन-आधारित न होने के कारण उसके रोजमर्रा इस्तेमाल पर भी कोई खर्चा भी नहीं होता।

(३) साइकिल पर्यावरण के लिए हितकर है। न कार्बन प्रदूषण, न ध्वनि प्रदूषण, न सड़क पर जाम का खास कारण बनता है। जाम की स्थिति पर जहां अन्य वाहनों को रुकना पड़ता है वहीं साइकिल-चालक बगल-बगल से निकलने में भी सफल हो सकता है। सड़कों पर अन्य वाहन दुर्घटना के कारण बन सकते हैं लेकिन साइकिल शायद ही कभी कारण होगा।

(४) अन्य वाहनों को खड़ा करने के लिए भी जगह चाहिए। आजकल शहरों में वाहनों की “आबादी” पर कोई रोक नहीं किंतु उनकी “पार्किंग” के लिए पर्याप्त स्थान कम ही उपलब्ध है। मेरे शहर, वाराणासी, में तो हालात इतने खराब हैं कि कभी-कभी बेतरतीब खड़े वाहनों के कारण पैदल चलना भी दूभर हो जाता है। साइकिल को खड़ा करना रिहायशी कमरे में भी संभव है और सड़क के किसी कोने-किनारे पर भी।

अवगुन भी तो हैं

(१) साइकिल की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इससे चलाने वाले की प्रतिष्ठा पर बट्टा लग जाता है। आप संपन्न हों तो आपसे उम्मीद की जाती है कि आप कार से नीचे किसी वाहन को नहीं चलाएंगे। कुछ नहीं तो बाइक आपके पास होनी चाहिए। साइकिल तब आपकी प्रतिष्ठा के अनुरूप हो सक्ती है जब आपकी इतनी ख्याति हो कि आपकी संपन्नता से लोग सुपरिचित हों और वे जानते हों कि आप स्वास्थ्य के प्रति सचेत होने से साइकिल चलाते हैं।

(२) आम तौर पर साइकिल एक सवारी के लिए बनी रहती। इसलिए दो या अधिक सवारियों के लिए हरएक के लिए साइकिल की जरूरत होती है। साइकिल की यह कमी गंभीर तो है ही। वैसे कभी-कभार दो-दो तीन-तीन सवरियां ढोते हुए भी लोग दिख जाते हैं।

(३) साइकिल के इस्तेमाल का मतलब है शारीरिक श्रम और उसका मतलब है आराम की जिन्दगी को छोड़ना। आम तौर पर मनुष्य सुखसुविधा से जीना चाहता है। आधुनिक तकनीकी का विकास जीवन को अधिकाधिक आरामदेह बनाना भी है। कष्टकर जीवनशैली को भला कौन चुनना चाहेगा?

अन्त में निजी रुचि

     अभी साइकिल के लाभहानि की उक्त बातें ही मेरे मस्तिष्क में आ रही है। इनके अतितिक्त भी लाभ या हानि की अन्य बातें हो सकती हैं। लेख का समापन करूं इससे पहले यह भी बताना चाहूंगा कि मेरी उम्र ७३+ हो चुकी है, फिर भी पैदल चलना मेरी पहली पसंद है। डेड़-दो कि.मी. दूर के गतव्य के लिए पैदल चलना मुझे स्वीकार्य है। पांचएक कि.मी. की दूरी तक साइकिल से आना-जाना मुझे कठिन नहीं लगता है। अधिक दूरी के लिए ऑटोरिक्शा या अन्य साधनों का सहारा लेना पड़ता है। पहले कभी स्कूटर चलाता था, लेकिन अब नहीं। वाराणसी की दुर्व्यवस्थित यातायात में स्कूटर से चलना मेरे लिए संभव नहीं। – योगेन्द्र जोशी

पुनर्मूषको भव – किन्तु न शक्यं तत्कर्तुम् (विवशता अपराधी के मुठभेड़ की)

देश में अनेक मौकों पर दुर्दांत अपराधियों का मुठभेड़ (इंकाउन्टर) में मारा जाना कोई नई बात है। पुलिसबलों द्वारा ऐसी घटनाओं को अंजाम देना एक प्रकार की विवशता का द्योतक है। अभी हाल में मुठभेड़ की ऐसी ही एक घटना कानपुर के अपराधी विकास दुबे के साथ घटी। उस घटना पर मुझे एक शिक्षाप्रद कथा की याद हो आई जिसे मैंने छात्र-जीवन में अपनी किसी संस्कृत पुस्तक में पढ़ी थी। कथा का शीर्षक थाः “पुनर्मूषको भव”, अर्थात् फिर से मूस (mouse) हो जाओ।

कुख्यात अपराधियों को लेकर अपनी टिप्पणी करने से पहले मैं उक्त कथा का संक्षेप में उल्लेख कर देता हूं।

किसी वन में एक महात्माजी (संन्यासीजी) कुटिया बनाकर रहते थे। वे किसी वनीय प्राणी को भगाते-दौड़ाते नहीं थे। विपरीत उसके वे अपने भिक्षार्जित भोज्य पदार्थ उनको भी खिलाते थे। समय वीतते-वीतते वहां के सभी प्राणी उनके सापेक्ष निर्भिक हो चुके थे। पास के गांव से कुत्ते-बिल्ली भी उनके पास आते-जाते थे।

उनकी कुटिया के निकट एक मूस/चूहा भी बिल बनाकर रहता था। वह भी उनके समीप निडर होकर खेलता-कूदता था। एक बार चूहे ने महात्माजी को अपनी व्यथा सुनाई, “महाराज, आप तो अपने तप के बल पर बहुत-से कार्य सिद्ध कर सकते हैं। मुझे भी एक कष्ट से मुक्ति दिलाइये।”

उदारमना महात्माजी ने जब उसके कष्ट के बारे में जानना चाहा तो चूहे ने कहा, “महाराज, एक बिल्ली अक्सर यहां आती है। वह मुझे मारकर खाना चाहती है। उससे मुझे डर लगता है। क्यों नहीं आप मुझे बिल्ली बना देते हैं ताकि मैं उसका मुकाबला कर सकूं।”

महात्माजी ने उसकी बात मानकर उस पर अभिमंत्रित का सिंचन किया और ‘तथास्तु’ कहते हुए उसे बिल्ली बना दिया। अब बिल्ली बना चूहा खुश था और निर्भीक होकर कुटिया के आसपास घूमने लगा। दिन बीतते गये। एक दिन कोई कुत्ता आकर उस बिल्ली के पीछे दौड़ पड़ा। जब भी कोई कुत्ता आता वह बिल्ली को काटने दौड़ पड़ता। बिल्ली ने महात्माजी से शिकायत करके उसे भी कुत्ता बना देने की प्रार्थना की। महात्माजी ने दया-भाव से उसे कुत्ता बना दिया। उस वन में जंगली जानवर भी रहते थे जो अक्सर कुटिया के आसपास आ जाते थे। महात्माजी उन्हें भी प्यार से पास आने देते। उन्हें देख कुत्ता डर जाता था। एक बाघ उस कुत्ते को शिकार बनाने की फिराक में था। तब उस कुत्ते ने महात्माजी को अपनी परेशानी बताई और उसे भी बाघ बना देने का अनुरोध किया। दयालु महात्माजी ने तथास्तु कहते हुए उसकी यह मुराद भी पूरी कर दी। बाघ की हिंसक प्रकृति के अनुरूप व्यवहार करते हुए वह महात्माजी पर झपटने की सोचने लगा। महात्माजी उसका इरादा भांप गये और “पुनर्मूषको भव” कहते हुए मंत्रों से उसे फिर से चूहा बना दिया।

उक्त कथा प्रतीकात्मक है नीति की बात स्पष्ट करने के लिए। प्राचीन संस्कृत साहित्य में पशु चरित्रों के माध्यम से बहुत ही बातें समझाने की परंपरा रही है। उक्त कथा में चूहे ने कोई अपराध नही किया उसे कोई सजा नहीं दी महात्माजी ने, लेकिन जब बाघ बने उसकी आपराधिक वृत्ति उजागर हुई तो उन्होंने उसे फिर से निर्बल चूहा बना दिया। उसकी औकात उसे दिखा दी।

अब मैं अपराधियों के मुठभेड़ की बात पर लौटता हूं। उपरिलिखित कथा बताती है कि अयोग्य व्यक्ति पर उपकार करना घातक सिद्ध हो सकता है। यानी आपराधिक वारदातों में लिप्त व्यक्ति पर रहम नहीं किया जा सकता है; उसके बचाव में उतरना कालांतर में घातक होता है। जब चीजें बहुत आगे बढ़ जाती हैं तो लौटकर भूल-सुधार की संभावना नहीं रहती। उक्त कथा में महात्माजी चूहे को बाघ योनि तक बढ़ा सके थे और उसको खतरनाक पाने पर पूर्ववर्ती योनि में लौटा सके थे। अपराधों की दुनिया में ऐसी वापसी संभव नहीं। जो अपराध किया जा चुका हो उसे “न हुआ” जैसा नहीं कर सकते। वस्तुस्थिति गंभीर हो इससे पहले ही कारगर कदम उठाना जरूरी होता है।

दुर्भाग्य से हमारी शासकीय व्यवस्था अपराधों को गंभीरता से नहीं लेती और समय रहते समुचित कारगर कदम नहीं उठाती। पुलिस बल अपराधों को रोकने और अपराधियों पर नकेल कसने के लिए बनी है। आम जनता की नुमायंदगी करने वाले राजनेताओं से उम्मीद की जाती है कि वे देखें कि शासकीय व्यवस्था उनके घोषित उद्येश्यों के अनुरूप चल रहा है। ये बातें हो रही हैं क्या? हरगिज नही!

विपरीत उसके अपराधियों के साथ साठगांठ रचने उनको बढ़ावा देने में हमारा पुलिसबल, प्रशासनिक तंत्र और शासकीय व्यवस्था चलाने वाले राजनेता, सभी एकसमान भूमिका निभाते हैं।

एक नागरिक के तौर पर मैं मौजूदा राजनैतिक जमात को सम्मान की दृष्टि से नहीं देख पाता। चाहे, मोदी हों, या योगी, या मुलायम सिंह, मायावती, और अन्य, लोग सभी के दलों में आपराधिक मानसिकता के नेता भरे पड़े हैं। कहा जाता है कि तकरीबन ३०% जनप्रतिनिधि आपराधिक बारदातों में लिप्त लोग हैं। मैं आपसे सवाल पूछता हूं। आप अपने आसपास, चारों तरफ नजर दौड़ाइये, यारदोस्तों-परिचितों से पूछिये कि आम लोगों के बीच किस अनुपात में अपराधी होंगे। १% भी नहीं, या १%, २%, ३%, … मुझे पूरा विश्वास है कोई भी अधिक नही बतायेगा। तो फिर राजनीति में इतने अधिक क्यों हैं? स्पष्ट है कि राजनीति उनकी शरणस्थली बन चुकी है।

सवाल उठता है कि राजनीति में ही इतने अधिक अपराधी क्यों हैं?

उनके बचाव में राजनेताओं की बेहूदी दलील सुनिएः उनके विरुद्ध झूठे मुकदमे दर्ज होते हैं। क्यों होते हैं झूठे मुकदमे? आमजन पर तो ऐसे झूठे मुकदमें सामान्यतः दर्ज नहीं होते तो इनके विरुद्ध ही क्यों? क्यों इनके इतने दुश्मन होते है? इलजाम छोटे-मोटे नहीं। कोई कत्ल का तो कोई बलात्कार का, कोई जमीन-जायदाद हड़पने का। एक औसत आदमी पर तो ऐसे  मुकदमें दर्ज नहीं होते। फिर इन्हीं राजनेताओं पर एक-दो नहीं दर्जनों मुकदमें क्यों दर्ज होते हैं, वह भी हत्या, बलात्कार, लूटपाट, अपहरण जैसे संगीन बारदातों के? आखिर इन ताकतबर लोगों ने इतने दुश्मन क्यों पाले हैं जो उनके विरुद्ध मुकदमे ठोकते हैं। जाहिर है कि मौजूदा राजनीति में अपराधियों का बोलबाला है और हर दल उन्हें संरक्षण देता है, मानें या न मानें।

हर राजनैतिक दल कहता है कि जब तक इन लोगों को अदालत दोषी घोषित नहीं करती इन्हें अपराधी कैसे मान लें? बहुत खूब! यह है “न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी” का सटीक उदाहरण अदालत में अपराध सिद्ध करेगा कौन? आपराधिक छवि ये लोग पुलिस में, राजनेताओं के बीच, अपनी पैठ बना लेते हैं। किसकी मजाल है कि जान पर खेलते हुए उनके विरुद्ध गवाही दे। पुलिस तो इतनी ईमानदार है कि परिस्थितिजन्य सभी साक्ष्य मिटा देती है। “कोढ़ में खाज” की स्थिति। न्यायिक व्यवस्था इतनी लचर है कि सालों लग जाते हैं निर्णय आने में। तारीख पर तारीख पर तारीख … यह अदालतों की कार्य-प्रणाली बन चुकी है। हमारी न्यायिक व्यवस्था अपराधी को कैसे बचाया जाये इस बात को महत्व देती हैं न कि भुक्तभोगी को कैसे न्याय दिलाया जाये उसको। कुल मिलाकर किसी का अपराधी सिद्ध होना आसान नहीं होता है।

सवाल उठता है कि किसी की छवि का भी महत्व होना चाहिए कि नहीं? अपने व्यक्तिगत जीवन में हम इसे महत्व देते है। फिर राजनीति में क्यों इसकी अनदेखी होती है? किसी राजनेता को अपने साथ आपराधिक छवि वाले को देख शर्म क्यों नही आती?

इन सवालों को उन राजनेताओं के सामने उठाना बेमानी है जो खुद इसके लिए जिम्मेदार हैं।

पुलिसकर्मी भी राजनेताओं के चहेते अपराधियों के बचाव में आ जाते हैं। कुछ तो उनसे दोस्ती ही कर लेते हैं, तो कुछ मजबूरी में चुप रहते हैं, क्योंकि नेताओं की बात न मानना घाटे का सौदा होता है।

कुल मिलाकर अपराधियों को रोकने वाला कोई नहीं।

लेकिन जब उनकी हरकतें इतनी बढ़ जाती हैं कि उनके संरक्षक या उनको प्रश्रय देने वाले ही खतरा महसूस करने लगें तो वे उनको ठिकाने लगाने की सोचते हैं। कानपुर के विकास दुबे ने जब ८ पुलिसकर्मियों को मार डाला तब सबकी नींद खुली। उसको मृत्युदंड जैसी न्यायसंगत सजा दिलाना संभव नहीं उस पुलिस बल के लिए जो तब तक उसे बचाती आ रही थी। अतः मुठभेड़ के नाम पर उसे यमलोक पहुंचाना उनकी विवशता थी।

इस घटना पर मैंने एक ब्लॉगलेख लिखा है (दिनांक १५ जुलाई २०२०) ।  घटना का वीडियो देख मुझे लगा कि वह तो एक घटिया और बनावटी तरीके से नियोजित इंकाउंटर का खेल था।

जब किसी अपराधी के हौसले इतने बुलंद हो जायें कि वह पुलिसबल के सिर पर चढ़ बैठे तो पुलिस असहाय हो जाती है। इसी बात को रेखांकित करने के लिए मैंने कथा के शीर्षक में यह शब्द जोड़े हैंः “किन्तु न शक्यं तत्कर्तुम्” अर्थात् वैसा करना संभव नहीं जैसा महात्माजी ने किया था कथा में। – योगेन्द्र जोशी

निष्प्रभावी न्यायिक तंत्र बनाम नियोजित मुठभेड़ – किस्सा विकास दुबे का

कानपुर की दिल दहलाने वाली घटना

पिछले कुछ दिनों से विकास दुबे समाचार-माध्यमों (मीडिया) पर चर्चा का विषय रहा है। उसके बारे में पहले कभी मैंने नहीं सुना था। शायद कम ही लोग (कानपुर से बाहर) उसके बारे में सुनते रहे होंगे। मेरे ख्याल से उससे कहीं अधिक चर्चा में उत्तर प्रदेश के अन्य अपराधी-माफिया रहे हैं। उसका अनायास चर्चा में आना उस दिल दहलाने की घट्ना के बाद हुआ जब २-३ जुलाई की अर्धरात्रि में हुए पुलिस छापे (raid) में उसने अपने गुर्गों की फौज की मदद से ८ पुलिसकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया। इस घटना में उसके मदद्गार खुद दो पुलिसकर्मी भी थे जिन्होंने छापे की गोपनीय जानकारी समय से पूर्व उस तक पहुंचाई। क्या विडंबना है कि पुलिस वालों को मरवाने में खुद अन्य पुलिसकर्मियों का हाथ था। घटना के बाद उसके कई साथी मारे गये और वह भागते-फिरते उज्जैन महाकालेश्वर मंदिर तक दर्शनार्थ पहुंच गया।

समाचार के अनुसार उज्जैन में एक पुष्पविक्रेता (माली) और मंदिर के सुरक्षाकर्मी ने उसे पहचान लिया और उसे पुलिस के हत्थे चढ़वा दिया। पुलिस जब उसे पकड़कर ले जा रही थी तो वह चीखकर बोला “मैं विकास दुबे कानपुर वाला”। ऐसा कहकर वह शायद लोगों को बताना चहता था कि उसके साथ कोई मुठभेड़ की घटना तो नहीं होगी। उसने भागने की कोशिश नहीं की है और पुलिस ने उसे निर्विरोध पकड़ लिया है। खुद को उज्जैन की पुलिस के हवाले करके वह मुठभेड़ से बच जाने की उम्मीद कर रहा था।

नियोजित घातक मुठभेड़ यानी इन्काउंटर

जुलाई ११ (शनिवार) के दैनिक जागरण (वाराणसी संस्करण, पृ. ८) में छपे समाचार के अनुसार गुरुवार को विकास दुबे को उज्जैन पुलिस ने महाकालेश्वर में पकड़ा और उसे पहले महाकाल थाने और फिर भैरवगढ़ थाने ले गई। पूछताछ के बाद उसे उ.प्र. से पहुंची एसटीएफ (STF) टीम को सौंप दियाउज्जैन पुलिस का दावा है की उसको हथकड़ी पहनाई थी और साथ में सुरक्षा हेतु बुलेट-प्रूफ जैकेट भी। विचार ठीक था क्योंकि उसका कोई दुश्मन कहीं घातक हमला न कर दे इससे बचना था। सुरक्षा के कदम तो उठाने ही चाहिए भले ही वे गैरजरूरी लगें। ऐन मौके पर धोखा तो हो ही सकता है, खास तौर पर शातिर अपराधी के मामले में। मध्य प्रदेश पुलिस शिवपुरी थाने तक एसटीएफ टीम के साथ रही जहां उ.प्र. का पुलिस बल पहुंच गया था। म.प्र. पुलिस ने वहां पर उसकी सुपुर्दगी (रात्रि करीब ८:०० बजे) की और एसटीएफ टीम कानपुर की ओर लौट आई।

कानपुर लौटते समय झांसी बॉर्डर पार करने के बाद सभी ने एक ढाबे पर भोजन किया और फिर आगे बढ़ गये। यहां तक तो सब ठीक रहा, किन्तु पुलिस के अनुसार कनपुर से करीब १०-१२ किमी पहले (भौंती गांव के आसपास) पानी बरसने के कारण फिसलनदार हो चुकी सड़क पर पुलिस की वैन जिसमें दुबे और कुछ पुलिसकर्मी थे पलट गयी। पुलिस कहती है कि गाय-भैंसों के झुंड के सामने आ जाने से यह हादसा हुआ। इसमें कुछ पुलिसकर्मीं जख्मी हुए। विकास दुबे को मौका मिला, उसने एक पुलिसमैन की पिस्टल छीनी और गोली चलाते हुए वह खेतों की तरफ भागने लगा। पुलिस ने उसे चेतावनी दी, वह माना नहीं। अंततः पुलिस को आत्मरक्षा एवं उसे रोकने के लिए गोलियां चलानी पड़ी। परिणाम उसके जीवन का अंत।

मुठभेड़ की विवशता

दुर्दांत अपराधियों के मामले में उ.प्र. की पुलिस आमतौर पर निष्क्रिय बनी रहती है जब तक कि कोई गंभीर घटना न घट जाये, जैसे कानपुर में आठ पुलिसकर्मियों की हत्या। ऐसे अपराधियों को कानूनसम्मत तरीके से सजा दिलाना पुलिस के लिए बेहद कठिन होता है। तब एक ही रास्ता रह जाता है – घातक मुठभेड़ यानी इन्काउंटर। इन्काउंटर का रास्ता विवादास्पद होता है यह सरकार और पुलिसबल, दोनों, जानते हैं। जनता भी इसे समझती है। लेकिन पुलिस की मजबूरी होती है इसे समझते हुए कई लोग इसे स्वीकार्य मानते हैं। लेकिन आलोचना के शौकीन लोगों को कुछ कहने-लिखने का मसाला मिल जाता है। वे भी समुचित सजा दिलाने का विकल्प क्या है यह नहीं बता पाते। सिद्धांतों से दुनिया चलती नहीं, किसी विकल्प को व्यावहारिक होना चाहिए!

अपराधों के अनुरूप सजा दिलाना क्यों असंभव-सा होता है इसे समझना कठिन नहीं है। कोई इंसान रातोँ-रात दुर्दांत अपराधी नहीं बनता और न ही वह राजनेताओं और प्रशासनिक/पुलिस अधिकारियों के संरक्षण के बिना चर्चित अपराधी की श्रेणी में आता है। अपराधी मूर्ख नहीं होते लेकिन उनकी सोच असामान्य और आपराधिक मनोवृत्ति की होती है। अपने काम में समय के साथ महारत हासिल कर लेते हैं। राजनेताओं और अधिकारियों से संबंध कैसे स्थापित करें इस कला को वे बखूबी सीख जाते हैं। दोनों पक्षों के बीच एक प्रकार के लेनदेन (give and take) का रिश्ता स्थापित हो जाता है। “मुझे तुम संरक्षण दो और मैं मौके पर तुम्हारे काम आऊंगा।” की नीति अपना लेते हैं। उदाहरणार्थ वह संरक्षक राजनेता के लिए येनकेन प्रकारेण वोट का बंदोबस्त करता है और बदले में राजनेता पुलिस और न्याय-तंत्र उसे बचाने की कोशिश करते है।

साफ है कि जब किसी को बचाने वाले मौजूद हों तो सजा कौन दिलायेगा? कोई पुलिस वाला करे क्या जब उस पर दवाब पड़ रहा हो। फोन पर उस तक पहुंचने वाले “आदेश” वह न माने तो अपराधी का कुछ बिगड़ता नहीं उल्टे पुलिस वाले को तबादले या निलंबन का दंड भुगतना पड़ता है। संबंधित राजनेता या उच्चाधिकारी का भी कुछ नहीं बिगड़ता है। राजनेता तो यह कहकर पल्ला झाड़ लेता है, “सार्वजनिक व्यक्ति होने के कारण तमाम लोग उससे मिलने आते हैं, जिनको पहचानने न पहचानने की जिम्मेदारी वह नहीं ले सकता। इसलिए किसी के साथ तस्वीर छप गयी तो इसमें गुनाह क्या है?“

अपराधियों से सभी आम लोग डरते हैं, खास तौर पर भुक्तभोगी जो कहीं से भी संरक्षण नही पाते और पुलिस भी अपराधी का नाम सुन मामला रफा-दफा करने में जुट जाती है (कौन दुश्मनी मोल ले?)। इसलिए अपराधी के विरुद्ध गवाही देने की हिम्मत आम आदमी नहीं दिखा पाता। फलतः अदालतों में जघन्य अपराध सिद्ध नहीं हो पाता और जब अपराधी बरी हो जाता है तब वह उन साक्ष्य देने वालों से चुन-चुन कर बदला लेता है। वह पहले से अधिक ताकतबर होकर उभरता है।

यदि पुलिसबल यह महसूस करे कि अपराधी को मृत्युदंड से कम सजा नहीं मिलनी चाहिए  जो  लचर न्यायिक  व्यवस्था के चलते  होगा नहीं तो वह घातक मुठभेड़ का रास्ता अपनाता है।

ध्वस्त न्यायिक व्यवस्था

यह सचमुच दुर्भाग्य का विषय है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था भरोसेमंद नहीं रह गयी है। अंग्रेजी में एक उक्ति हैः “Justice delayed is justice denied”। अर्थात् बिलंब से दिया गया अदालती निर्णय असल में न्याय नहीं रह जाता है। यह कथन आप न्यायाधीशों, राजनेताओं, जनप्रतिनिधियों और बुद्धिजीवियों, सभी, के मुख से सुनते आये होंगे। तो फिर त्वरित न्याय की दिशा में कोई कदम क्यों नहीं उठाये जाते?

न्यायिक व्यवस्था की गंभीर खामियों का शिकार भुक्तभोगियों को होना पड़ता है। समस्याएं अनेक हैं जैसेः

(१) न्यायालयों में न्यायाधीशों की कमी

(२) अपराधियों की पैरवी को कानूनी दांवपेंच के ज्ञाता अधिवक्ता

(३) किसी मामले की सुनवाई की तारीख पर तारीख

(४) गंभीर पाये गये अपराधियों को भी जमानत

(५) पुलिसबल का मामले के प्रति उदासीनता

(६) सुरक्षा के अभाव में गवाहों का मुकरना

(७) नयायालयों का परिस्थिति-जन्य साक्ष्यों को गंभीरता से न लेना

(७) न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार

इनके अतिरिक्त भी अन्य कारण हो सकते हैं।

मुठभेड़ का अविश्वसनीय नाटकीय खेल

मेरी धारणा है कि मुठभेड़ के बहुत कम मामले होते हैं जिसमें पूरा घटनाचक्र इस तरह घटित होता है कि उसकी वास्तविकता पर शक न किया जाये। उसमें दोनों पक्षों के कुछ सदस्य जख्मी होते हैं और एक या अधिक अपराधी मारे भी जाते हैं। इसके विपरीत अधिकांश बनावटी होते हैं, अर्थात् वे पूर्वनिर्धारित रहते हैं और उनको कैसे अंजाम दिया जायेगा इसकी योजना पहले से तय हो चुकती है। मेरा मानना है कि विकास दुबे की मुठभेड़ इसी श्रेणी की थी। मुझे कई बातें ऐसी लगी जो उसे एक घटिया दर्जे के फिल्मांकन की तरह लगता है जिसमें निर्देशक साफ नजर माने वाली गलतियां करता है।

(१ )     मुठभेड़ की घटना प्रातः ७:००-७:३० बजे की बताई जाती है। कहा जाता है कि सड़क पर गाय-भैंसो के आ जाने और पुलिस-वैन का अचानक ब्रेक लगने से वह एक ओर पलट गयी। मेरा ख्याल है कि पशुपालक सुबह के टाइम अपने नित्य कर्म करके उन्हें दुहते हैं और चारागहों को ८-९ बजे से पहले नहीं ले जा पाते हैं। (घटना के वीडियो में मैंने तो किसी को कहते भी सुना कि रात भर वैन चला रहे चालक को  झपकी  आ गयी होगी।)

(२ )     क्या वैन पलटने का कथित दावा सही है? यदि हां तो सवाल उठता है कि तेज गति का वाहन पलटने के बाद भी कुछ दूर तक घिसटेगी ही। लेकिन घटनस्थल पर ऐसे कोई संकेत नहीं दिख रहे थे। वाहन एक तरफ पलटी हुई थी लेकिन क्षतिग्रस्त नजर नही आ रही थी। उसके पहिए तो सही सलामत दिख रहे थे। यह भी मेरी समझ से परे है क्यों क्रेन से उस वाहन को कुछ दूर तक घसीट कर ले जाया गया? क्या इसलिए की वाहन का एक पार्श्व (कदाचित बाई साइड) सड़क से रगड खाये ताकि बाद में कोई देखे तो दावे को सही मान ले। अन्यथा कोई भी सामान्य समझ वाला यही मानेगा कि वाहन को पहले पहियों पर खड़ा किया जाना चाहिए, फिर आगे खींचकर ले जाना चाहिए। “टो” (tow) करने का आम तरीका यही होता है।

(३)     विकास दुबे दुर्दांत अपराधी माना गया। खुद उज्जैन पुलिस ने उसे हथकड़ी पहनाकर उ.प्र. पुलिस को सोंपा था। तब क्यों एसटीएफ टीम ने उसे हथकड़ी नहीं पहनाई? हथकड़ी किस श्रेणी के अपराधी को पहनाई जाती है। पुलिस का तर्क मनमानी का था। हथकड़ी न सही, अपराधी के हाथ तो कमर के पीछे ही बांधा होता!!

(४)     कहते है उसे दो पुलिसकर्मियों ने बीच में बिठाकर पकड़ रखा था। वाहन पलटने पर पुलिसकर्मियों को चोटें आईं, अपराधी को नहीं। वह उनके बीच से वाहन के बाहर निकलने में कैसे सफल हुआ? हल्की-फुल्की चोट खाये (?) दो पुलिसजन उसे नियंत्रित नहीं कर सके। इतने कमजोर थे वे दोनों? अन्य कर्मी क्या थे ही नही? पूरा काफिला चल रहा था।

(५ )     ताज्जुब कि वह किसी की पिस्टल भी छीनकर भागने में समर्थ हुआ। उसकी एक टांग कमजोर थी और वह ठीक-से चल भी चल भी नहीं पाता था और वह ऐसा दौड़ा कि कोई जवान उसे पकड़ भी नहीं पाया।

(६)     खैर भागा, फायरिंग करते हुए। पुलिस ने जो गोलिया चलाईं इतनी नजदीक से चलाईं कि उसका हृदय, गुर्दा (किडनी), जिगर (लिवर) को छेदते हुए पार हो गयीं। क्या निशाना था जवानों का! वैसे कम ही पुलिसमैन निशानेबाज हो पाते हैं। मुठभेड़ में आम तौर पर कमर के नीचे गोली चलाई जाती है। लेकिन जब इरादा ही मुठभेड़ में मारने का हो तो ऐसा ही होता है।

अंतिम बात

मुठभेड़ में विकास दुबे को मारा जाना था इरादतन। यह बात प्रायः हर कोई मान कर चल रहा था। जैसा पहले कह चुका हूं मैं भी यही मान रहा था। पुलिस की यह मजबूरी थी और यह न्यायसम्मत नहीं था। मेरा कहना है कि इस नाटक को गटिया तरीके से नहीं पेश करना चाहिए था। उसे विश्वसनीय लगना चाइए था।

नौबत मुठभेड़ की आई। इसके लिए जनता की सेवा करने का राग अलापने वाले राजनेता और खुद पुलिस महकमा जिम्मेदार रहा था। अन्य अप्रराधियों को भी संरक्षण ये ही दिये हुए हैं।

इस घटना पर मुझे एक पौराणिक कथा ध्यान में आती है।स्मासुर नामक एक असुर ने महादेव शिव की घोर तपस्या की। आशुतोष कहे जाने वाले भगवान शिव वरदान देते समय भावी परिणामों के बारे में सोच नहीं पाते थे। असुर ने वर मांगा कि जिसके सिर पर हाथ रखूं वह भस्म हो जाए। शिवजी ने वर दे दिया। असुर ने उसका प्रयोग उन्हीं पर करना चाहा। वे भागे-भागे भगवान् विष्णु के पास पहुंचे। श्रीविष्णु ने मोहिनी रूप धारण करके असुर को अपने साथ नृत्य का प्रलोभन दिया। नृत्य की एक भंगिमा में मोहिनी ने अपने सिर पर हाथ रखा। असुर ने उस भंगिमा की नकल की और स्वयं को भस्म कर डाला। हमारे शासकीय तंत्र में अपराधी को इसी प्रकार पहले संरक्षण दिया जाता है, फिर अति होने पर उसका इंकाउंटर कर दिया जाता है।योगेंद्र जोशी

चीनी मोबाइल-ऐपों पर प्रतिबंध – गनीमत कि मेरे पास एक भी नहीं

साम्यवादी (Communist) देश चीन के साथ हाल में पैदा हुई कड़ुवाहट और सीमा पर अतिक्रमण के साथ उसकी युद्ध के लिए गंभीर तैयारी को देखते हुए केन्द्र सरकार ने उस देश से आर्थिक संबंधों को यथासंभव सीमित करने का निर्णय लिया है। उस दिशा में चीनी कंपनियों की देश में आर्थिक क्रियाकलापों में भागीदारी घटाने का सिलसिला शुरु हो चुका है। उसी दिशा में एक कदम हें चीन में बने आधुनिक मोबाइल फोनों के “ऐपों” (अप्लिकेशन प्रोग्राम, application software) पर प्रतिबंध लगा दिया जाना। ऐसे ऐपों की कुल संख्या उनसठ (५९) है। यह सूची यहां प्रदर्शित है।

प्रतिबंधित चीनी मोबाइल ऐप (Apps)

जब यह समाचार मैंने पढ़ा तो स्वाभाविक रूप से जिज्ञासा जगी कि देख लूं कि मेरे स्मार्टफोन में कौन-कौन से मौजूद हैं। संलग्न हैं ऐपों को प्रदर्शित करने वाले “स्क्रीन-शॉट” की तस्वीरः

मेरे सक्रिय मोबाइल ऐप

My MobileApps

गिनने पर मेरे स्मार्ट्फोन के ऐपों की संख्या ६२ निकली। और मुझे आश्चर्य हुआ कि प्रतिबंधित ऐपों में से एक भी मेरे फोन पर मौजूद नहीं। इसका मतलब यह हुआ कि कोई भी ऐप मेरे काम का नहीं। या यों कहिए कि मेरी निगाह में वे कभी आये नहीं। मैं आवश्यकता पड़ने में इंटरनेट पर उपयुक्त ऐप की तलाश करता हूं, परंतु डाउनलोड करने में सावधानी बरतता हूं। मैं छानबीन कर लेता हूं कि ऐप सुरक्षित तो है। अधिकतर कार्य में लैपटॉप पर करता हूं खास तौर पर ऑनलाइन लेनदेन के काम में।

उक्त प्रतिबंधित ऐपों में से अधिकांश का तो नाम मैंने कभी सुना भी नहीं। कोई काम का होता तो कभी न कभी उसे इंटरनेट पर खोजकर “डाउनलोड” कर चुका होता। इन ऐपों की कुछ न कुछ उपयोगिता होगी ही कि उन पर प्रतिबंध से चीनी आईटी कंपनियों को भारी भरकम घाटा उठाना पड़ रहा है।

ऐसी क्या खूबी है इनमें कि दुनिया दीवानी है और मैं उनसे अनजान पड़ा हूं। मेरे पास अधिक छानबीन करने का न तो समय है न सामर्थ्य। फिर भी सोचा कि दो-तीन ऐप के बारे में देख तो लूं कि वे किस काम के हैं, क्या खूबी है उनमें। सबसे पहले मैंने टिकटॉक (TikTok) को चुना क्योंकि इसका नाम मैं सुनते आ रहा था और प्रतिबंध लगने पर कदाचित सर्वाधिक चर्चित ऐप यही रहा। टिकटॉक को लेकर अपना दुःख व्यक्त करते एक युवती का वीडियो मैंने देखा। युवती सचमुच में दुःखी थी या वह अभिनय कर रही थी इसमें मुझे शंका है।

टिकटॉक (TikTok)

Tik Tok को चीनी कंपनी बाइटडांस (ByteDance) ने विकसित किया है। मोटे तौर पर तो यही कहा जा सकता है कि यह कमोबेश वही कार्य करता है जो आपका स्मार्टफोन कैमरा कर लेता है यानी “वीडियो क्लिप” (video clip) बनाना। फर्क यह है कि टिकटॉक की तस्वीरें कहीं अधिक स्पष्ट और जीवंत होती हैं। यह छोटे-छोटे वीडियो-क्लिप बनाने में काम आता है, आम तौर पर तीन-चार सेकंड और अधिकतम साठ सेकंड। इसके लिए ऐप में आरंभ में ही समय-अंतराल चुनने का विकल्प रहता होगा। इतना ही नहीं टिकटॉक में वीडियो के साथ पृष्ठभूमि का संगीत भी मिश्रित कर सकते हैं। इस कार्य के किए विविध म्यूज़िक-क्लिपों में से चुनने का विकल्प टिकटॉक प्रदान करता है। स्पष्ट है कि इतने सब की व्यवस्था आपके फोन पर हो नहीं सकती। इसके लिए टिकटॉक का सर्वर ही आपके काम आता है। यहीं पर उससे खतरे की संभावना रहती है। आप के फोन के कौन से आंकड़े (data) उस सर्वर तक पहुंचते हैं कहना मुश्किल है। बहुत कुछ ऑनलाइन करना होता है। खैर, यह ऐप विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में उपलब्ध है। मुझे जो जानकारी मिली उसके अनुसार खुद चीन में टिकटॉक नहीं चलता है। इसका मौलिक चीनी संस्करण डॉयिन (Douyin) चीन की जनता पहले से इस्तेमाल कर रही है।

बायडू मैप्स (Baidu maps)

दूसरा ऐप जिसके बारे में मैंने जानकारी जुटाई वह है बायडू मैप्स। यह चीन की बायडू (Baidu) कंपनी का उत्पाद है। इसे मैं गूगल मैप का चीनी संस्करण कहूंगा। अर्थात् यह वांछित स्थानों का नक्शा और सेटेलाइट तस्वीरें प्रदान करता है। गुणवत्ता की दृष्टि से इसकी तस्वीरें कहीं अधिक बेहतर कही जायेंगी। दूसरे शब्दों में नक्शे एवं तस्वीरें उच्चस्तरीय स्पष्टता (high definition) की रहती हैं। कहा जाता है कि इसके द्वारा मिली तस्वीरों का निरीक्षण बारीकी से किया जा सकता हैं। दावा किया जाता है कि मैप में सड़कें ही नहीं बल्कि उनके किनारे के मकानों, पेड़-पौधों आदि की तस्वीरें पूरी भी बारीकी से प्रदर्शित होती हैं। पढा तो मैंने यह भी कि कुछ भवनों की भीतरी तस्वीरें भी देखने को मिल सकती हैं। बायडू मैप में चीन की अपनी जीपीएस (GPS) प्रणाली भी एकीकृत है। इसलिए यह वाहन-चालकों को यात्रा-संबंधी सुविधा भी प्रदान करता है। अन्य प्रणालियां पहले से प्रचलन में हैं किंतु यह चीनी ऐप स्पष्टता के नजरिये से अधिक आकर्षक एवं उपयोगी कहा जा सकता है। चूंक़ि मैपों की विस्तृत जानकारी अर्थात् तत्संबंधित आंकड़े किसी स्मार्टफोन की सीमित स्मृति (memory) पर भंडारित रखना संभव नहीं, अतः केंद्रीय सर्वर उपयोक्ता के फोन की मदद करता है। इस कारण से सर्वर की पहुंच उपयोक्ता के फोन की गोपनीय सामग्री तक रहती है।

यूसी ब्राउज़र (UC browser)

मैंने जिन तीन इंटरनेट ऐप्स को जांचने के लिए चुना उनमें अंतिम है यूसी ब्राउज़र (UC browser)| इंटरनेट सर्फिंग के लिए ब्राउजरों की कोई कमी आईटी क्षेत्र में नहीं है। माइक्रोसॉफ्ट अपने विंडोज़ प्रचालन प्रणाली (operating system) के अभिन्न घटक के तौर पर आईई (इंटरनेट एक्सप्लोरर internet explorer) जोड़कर देता है। किंतु बहुत से लोग गूगल क्रोम (Google chrome) अथवा (Mozilla firefox) या इन जैसे ही किसी अन्य निःशुल्क ब्रौउज़र का इस्तेमाल करते हैं। ऐप्पल आइइओएस) (Apple iOS) के साथ सफारी (safari) का प्रयोग सामान्य बात है। हरएक की अपने खूबियां एवं कमियां हैं। इसी कड़ी में चीनी आईटी कंपनी यूसीवेब (UCWeb) का यूसी ब्राउज़र (UC browser) उपयोक्ताओं को निःशुल्क उपलब्ध है।

यूसी ब्राउज़र के बारे में कहा जाता है कि यह काफी तेज है अन्य ब्राउज़रों की तुलना में। डाउनलोड एवं उपलोड करने की गति अधिक बताई जाती है। ऐसा यह डेटा-कंप्रेशन (data compression) तकनीकी के इस्तेमाल से करता है। इस तकनीक का अर्थ है किसी फाइल का बाइटों में आकार उसमें निहित जानकारी को प्रभावित किए बिना छोटा करना ताकि डाउनलोड/उपलोड कम समय में हो जाये। कई उपयोक्ता अपनी भारी-भरकम फाइलों को किसी को भेजने या उपलोड करने में इस तकनीक का प्रयोग करते हैं। इस कार्य के लिए फाइल “ज़िप” (zip) करने हेतु अप्लिकेशन प्रोग्राम अर्थात् ऐप उप्लब्ध है। इसके विपरीत जिप की गई फाइल की प्राप्ति को उसके मूल (original) रूप में वापस पाने के लिए उसे “अनज़िप” (anzip) किया जाता। प्रचलित ब्राउज़र आम तौर पर यह सब नहीं करते। लेकिन यूसी ब्राउज़र करता है। चूंकि प्रचलित स्मार्टफोन इतने समर्थ नहीं होते इसलिए यह कार्य यह ब्राउज़र यूसी-वेब के केंद्रीय सर्वर के साथ मिलकर करता है। यही इसके खतरे का कारण बन सकता है, क्योंकि सर्वर उपयोक्ता के मोबाइल के गोपनीय आंकड़े चुरा सकता है।

यूसी ब्राउज़र चीन, भारत, एवं इंडोनेशिया में अधिक प्रचलित है, न कि अन्य देशों में। कई देशों में अपनी भाषा में अप्लिकेशन प्रोग्राम उपलब्ध रहते हैं शायद अन्य देशों की दिलचस्पी कम हो।

भारतीय आईटी पेशेवर

भारत के आईटी (information technology) के पेशेवर दुनिया भर में छाए हुए हैं और उनकी सभी जगह अच्छी साख है, चीन के पेशेवरों से कम नहीं शायद उनसे भी अधिक। लेकिन उनकी यह कमजोरी रही है कि वे पहले से स्थापित राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को अपनी सेवा देते रहे हैं। भारत के कंप्यूटर युग के शुरुआती दौर में इन्फोसिस, एचसीएल, टीसीएस, विप्रो आदि जैसी दिग्गज कंपनियां स्थापित हुईं, लेकिन मेरे ध्यान में कोई कंपनी नहीं जो हाल के वर्षॉं में स्थापित हुई हो शीर्ष की कंपनियों में स्थान पा सकी हो। यहां के पेशेवरों ने विभिन्न संगठनों के कार्य-निष्पादन (working) के लिए प्रोग्राम विकसित किए हैं, जैसे भारतीय रेलवे, बैंक आदि। किंतु दुर्भाग्य की बात यह है कि इन पेशेवरों ने आम आदमी के रोजमर्रा उपयोग के लिए आईटी प्रोग्राम विकसित करने में कोई खास रुचि नहीं दिखाई है और वे भारतीय भाषाओं के प्रति पूरी तरह उदासीन रहे हैं। आपको शायद ही किसी संस्था की वेबसाइट भारतीय भाषाओं में मिले। राज्य सरकारों के राजकाज की भाषाएं क्षेत्रीय घोषित हैं, लेकिन उनका “ऑनलाइन” कार्य प्रायः अंग्रेजी में ही दिखाई देता है। इसके विपरीत चीनी पेशेवरों ने चीनी जनता के लिए चीनी (मेंडरिन) भाषा में अप्लिकेशन प्रोग्राम विकसित किए हैं। चीन के लोग यथासंभव चीनी भाषा का प्रयोग करते हैं अतः ऐसे प्रोग्राम लोकप्रिय होते रहे हैं। दुनिया वाले इन प्रोग्रामों के (अंग्रेजी संस्करण) अधिक न भी इस्तेमाल करें तब भी करोड़ों में उनके यहां उपयोगकर्ता मिल ही जायेंगे। भारतीय जन समुदाय देशज प्रोग्रामों के बदले अंग्रेजी में प्राप्य प्रोग्रामों में रुचि रखता है भले ही वे चीन में विकसित हों। इस मामले में हम कभी भी चीन की बराबरी नहीं कर सकते।

मुझे यह देख कोफ़्त होती है कि भारतीय युवा नये-नये ऐपों का आकर्षण झेल नहीं पाते है। आईटी आधारित नये-नये शौक पालने में उन्हें देर नहीं लगती। नयी चीजों के प्रति अति उत्साह हानिकर भी हो सकता है इसे नजरअंदाज करना उचित नहीं। – योगेन्द्र जोशी

 

पुनर्जन्म हिटलर का – चीन में पुरुषों के आनुवंशिक कूट-संकलन

शी जिनपिंग बनाम अडॉल्फ हिटलर

हिटलर कुख्यात शासक माना जाता है। शासकीय व्यवस्था में जहां कहीं ऐसा व्यक्ति दिखता है जो अपनी जिद में किसी भी हद तक जाने को तैयार हो, अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने की सोचता हो, उसे हिटलर की संज्ञा दे दी जाती है। हिटलर यहूदियों पर अत्याचार के लिए जाना जाता है; उन्हें गैस-चैंबर में ठूंसकर मारा गया यह इलजाम हिटलर पर लगाया जाता है। हिटलर दुनिया पर राज करना चाहता था और जर्मन “श्रेष्ठता” स्थापित करना चाहता था। लेकिन उसका अंत जर्मनी की बरबादी एवं विभाजन के साथ हुआ।

हिटलर की मृत्यु विश्वयुद्ध की समाप्ति के समय १९४५ में हुई। तब से बहुत कुछ बदल चुका है। उस काल में डिजिटल तकनीकी जैसी कोई चीज नहीं थी। आज यह तकनीकी पर्याप्त विकसित है और राष्ट्रों की व्यवस्था काफी हद तक इसी तकनीकी पर निर्भर है। शांति स्थापित करना हो या युद्ध लड़ना हो निर्भरता इसी तकनीकी पर आ ठहरती है। इसलिए आज जिसे हिटलर कहा जाना हो उसके तौर-तरीके बीते जमाने के हिटलर से भिन्न होंगे ही। लेकिन ऐसे व्यक्ति की सोच तथा इरादे भिन्न नहीं होंगे। अपने इन विचारों के परिप्रेक्ष में मुझे चीन की साम्यवादी (कम्यूनिस्ट) पार्टी के महासचिव एवं देश के मौजूदा राष्ट्रपति शी जिनपिंग (Xi Jinping) में मुझे हिटलर की छवि दिखाई देती है।

आठ-दस रोज पहले मुझे न्यूयॉर्क-टाइम्ज़ (New York Times)  की वेबसाइट पर एक लेख (अंग्रेजी में) पढ़ने को मिला। शीर्षक था

“China Is Collecting DNA From Tens Of Millions of Men And Boys, Using U.S. Equipment”

लेख की लेखिका हैं चीनी मूल की सुइ-ली वी (Sui-Lee Wee) जो बेजिंग में न्यू-यॉर्क टाइम्ज़ की संवाददाता हैं। उक्त लेख का आरंभिक अनुच्छेद/वाक्य ये हैः

“The police in China are collecting blood samples from men and boys from across the country to build a genetic map of its roughly 700 million males, giving the authorities a powerful new tool for their emerging high-tech surveillance state.”

जिसका हिंदी अनुवाद कुछ यों होगाः

“करीब 70 करोड़ पुरुषों के आनुवंशिक कूट तैयार करने के लिए चीन की पुलिस देश के कोने-कोने से आदमियों एवं बालकों से खून के नमूने इकट्ठा कर रही है जिससे उच्च तकनीक की निगरानी/चौकसी की उभरती प्रणाली अधिकारियों को मिल सके।”

क्या मकसद है इस पूरी कवायद का? मैं यही समझता हूं कि जीवन-पर्यन्त चीन के राष्ट्रपति बन चुके शी जिनपिंग हर प्रकार का विरोध कुचल सकें और स्वयं को दुनिया का सबसे ताकतबर नेता बन सकें। उनके अरमान अमेरिका के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र होने का “पद” छीन सकें। मकसद कमोबेश वही है जो हिटलर के थे। शी जिनपिंग हिटलर के आधुनिक अवतार हैं। 

इस लेख के कुछएक बिंदुओं को मैं पाठकों के सामने रख रहा हूं। जो किया जा रहा है और जो उसके संभावित उपयोग/दुरुपयोग होंगे उसका आकलन वे स्वयं कर सकते हैं।

लेख में ऑस्ट्रेलियन स्ट्रीटिजिक पॉलिसी इंस्टिट्यूट (Australian Strategic Policy Institute) का जिक्र करते हुए कहा गया है कि चीन में 2017 से ही नमूने संकलित करने का कार्य चल रहा है। इससे निर्मित आंकड़ाकोष (database) से किसी व्यक्ति के खून, लार एवं अन्य शारीरिक तत्वों के अध्ययन द्वारा उसके रिश्तेदारों का पता लग जायेगा।

इस कार्य में अमेरिका की थर्मो-फिशर कंपनी परीक्षण-किट मुहैया करा रही है।

इस परियोजना (प्रॉजेक्ट) का उद्येश्य चीन की आधुनिकतम तकनीकी के प्रयोग से  लोगों, विशेषतः लक्षित प्रजाति समुदायों (ethnic communities), को नियंत्रण में रखने की विधियों को विस्तार देना है। उन्नत कैमरों, मुखाकृति पहचान, और कृतिम बुद्धि (AI) का इस्तेमाल पुलिस बल पहले से ही कर रहा है।

पुलिस का कहना है उन्हें ऐसे आंकड़ाकोष की आवश्यकता है। इसकी मदद से अपराधियों को पकड़ना आसान होगा। कुछ अधिकारी एवं देश के बाहर के मानवाधिकार समूह चिंता व्यक्त करते हैं कि निजता में हस्तक्षेप और असहमतों (असंतुष्टों, dissidents) के संबंधियों को परेशान करने में इसका दुरुपयोग होगा। ये नमूने व्यक्ति की सहमति के साथ नहीं लिए जा रहे हैं। अधिकारवादी शासन में किसी का असहमत होना माने नहीं रखता। वैसे अधिकांश लोग विरोध में है।

“ह्यूमन राइट्स वॉच” की माया वांग (Maya Wang) के अनुसार किसी सक्रिय जन से कौन अतिनिकटता से संबंधित है यह पता लगाने का विचार ही सिहरन पैदा करता है।

यह कार्यक्रम स्कूलों में भी चल रहा है। जो कोई खून का नमूना नहीं देगा उसके परिवार को “काली सूची” (black household) दर्ज होगा और उसे शासन-प्रदत्त लाभों से वंचित होना पड़ेगा।

नजर रखना चीनी पुरुषों पर

मान्यता है पुरुषों में अपराधी अधिक होते हैं। लेख में एक उदाहरण दिया है कि किस प्रकार जीन-तकनीकी के प्रयोग से चीनी मंगोलिया के 11 किशोरियोँ-युवतियों के हत्यारे को 2016 में पकड़ा गया। हत्यारे का DNA नमूना तो मिला लेकिन उसकी पहचान नहीं हो पाई। 2016 घूस के मामले में एक व्यक्ति पकड़ा गया जिसका DNA नमूना उस अपराधी के सन्निकट था। इस DNA परीक्षण से उस अपराधी तक पहुंचना संभव हुआ जो इस व्यक्ति से संबंधित निकला।

चीन के पास दुनिया का सबसे बड़ा आनुवंशिक आंकड़ा भंडार है। संदिग्ध अपराधियों के आंकड़े इकट्ठे किए जाते रहे हैं ताकि वे कहीं अस्थिरता न फैलाएं। पुलिस ने उईगर (वीगुर, Uyghurs) मुस्लिम समुदाय तथा तिब्बतियों के आंकड़ों को खास तौर पर एकत्रित किया है ताकि उन पर साम्यवादियों (communists) का नियंत्रण बना रहे। हाल में पुरुषॉ के आनुवंशिक नमूने लेने में तत्परता बढ़ गयी है। आबादी के 5 से 10 प्रतिशत पुरुषों के नमूने इकट्ठा करने का लक्ष है। इनकी मदद से अन्य पुरुषों (संबंधीजनों) के DNA चरित्र की जानकारी मिल जाएगी। पुलिस ने डॉंग्लान एवं गुआंक्शी क्षेत्र से करीब 10% पुरुषों के नमूना पा लिये हैं।

परिक्षण-साधन चीन की कंपनियों से खरीदे गये लेकिन कुछ का ऑर्डर अमेरिकी थर्मो-फिशर को भी मिला। थर्मो-फिशर को विशेष चिन्हक (gene-marker) के लिए चुना है ऐसा कंपनी का दावा है। आनुवंशिक चिह्नकों को चीनी मानव-प्रजातियों विशेष तौर पर वीगुर मुस्लिमों एवं तिब्बतियों को ध्यान में रखकर चुना गया है। थर्मो-फिशर के परीक्षण-साधन के संदर्भ में वैज्ञानिकों, नीतिशास्त्रीजनों (ethicists), मानवाधिकारवादियों का मत है कि इस विधा का दुरुपयोग सामाजिक नियंत्रण के लिए किया जा सकता है।

निजता एवं सहमति

अभी आंकड़ा-भडांर बढ़ाया जा रहा है, किंतु इसका उपयोग शुरू हो चुका है। चीनी पुलिस का एक तंत्र “डीएनए स्काईनेट” (DNA Skynet) है जिसमें इसका इस्तेमाल चौकसी (surveillance) के लिए होने जा रहा है। शार्प आई (Sharp Eye) नामक परियोजना में इसे इस्तेमाल किया जाएगा।

चीन के लोग उनके इंटरनेट-प्रयोग तथा अन्य कार्यों में सरकरी दखलंदाजी को स्वीकार कर चुके हैं। लेकिन मौजूदा DNA नमूनों के मामले में विरोध अवश्य दिख रहा है। इस मामले में अभी कोई कानून नहीं है। मार्च माह में चीन की शीर्ष सभा (Parliament) में दो प्रतिभागियों ने सुझाव दिया कि जैसे-जैसे तकनीकी आगे बढ़ती है वैसे-वैसे उपयोक्ताओं के अधिकारों को सुरक्षित रखा जाना चाहिए। [चीन में विरोध तो कर नहीं सकते, सरकार की मेहरवानी की आस रहती है।]

अधिकारी देहाती क्षेत्रों में नमूने लेने के लिए चुपचाप आगे बढ़ रहे है जहां इस प्रोग्राम और उसके निहितार्थ की समझ लोगों में नहीं है। इन इलाकों में अधिकारी गर्वान्वित दिखाए देते हैं और स्कूलों के बच्चों के खून-नमूने लेते हुए फोटो प्रचारित करते हैं। इन फोटो में दिख रहे लोग खून के नमूने लेने का प्रयोजन शायद ही ठीक से समझते हैं। साक्षात्कारों एव सोशल मीडिया की पोस्टों से लगता है कि नमूना न देने पर सजा हो सकती है।

जियांग नाम के कम्प्यूटर एन्जीनियर के कथनानुसार खून का नमूना देने के लिए उसे अपने गांव जाने को कहा गया। वह अस्पताल गया और उसे भुगतान करना पड़ा था। न उसने नमूना लेने का कारण पूछा और न ही उसे बताया गया। चीनी लोगों को अपना पहचान पत्र सदैव साथ रखना पड़ता है इसलिए अधिकारियों से पहचान छिप नहीं सकती।

जनसामान्य के अधिकारों के लिए सक्रिय लोगों का कहना है कि आनुवंशिकी विज्ञान ने चीनी अधिकारियों को नापसंद जनों पर अभियोग चलाने के मौके दे दिये हैं। उन्हें शंका है कि DNA आंकड़े को असंतुष्टों [राजनैतिक dissidents] के विरुद्ध पुख्ता सबूत के तौर पर पेश किया जा सकता। बीजिंग पुलिस ने कुछ मामलों में ऐसा प्रयोग किया भी है।

निजता के पक्षधर एक चीनी नागरिक ली वेइ (Li Wei) की बात लेख में पेश है। ली का कहना है कि खून या लार आदि के ममूने पुलिस के पास हों तो वे आपराधिक बारदाद के स्थान पर छोड़े जा सकते हैं और उनका दुरुपयोग व्यक्ति को फंसाने में हो सकता है। अपने खुद का अनुभव उन्होंने बताया कि कैसे एक होटल में पुलिस उनके पास पहुंची और पुलिस स्टेशन चलने की और DNA नमूने की मांग करने लगी। उन्होंने मना किया; उन्हें मारा-पीटा गया, पर वे माने नहीं।

ऐंबर वांग (Amber Wang) तथा लियु यी (Liu Yi) के शोधकार्य का लेख को योगदान रहा है। लेख में कई फोटो शामिल हैं जिन्हें मैं यहां नहीं प्रस्तुत कर रहा हूं। उनके लिए मूल लेख देखना पड़ेगा। – योगेंद्र जोशी

लॉकडाउन काल में मन में उपजे छिटपुट छितराए विचार (२)

इस समय बेंगलूरु में हूं गृहनगर वाराणसी से दूरलॉकडाउन में कुछ ढील मिल चुकी है। कहने को रेलयात्रा एवं हवाईयात्रा की सुविधा आरंभ हो चुकी है। लेकिन भ्रम इतना फैला है कि वापसी यात्रा की तिथि तय नहीं हो पा रही है। मैं २४ घंटे व्यस्तता से बिता सकता हूं, परंतु दो-अढाई मास के इस अनियोजित प्रवास में अपनी आम दैनिक चर्या से वंचित हूं, जिसका एहसास रह-रह के बेचैन करता है। अन्यथा इंटरनेट से प्राप्य विविध जानकारी, लैपटॉप पर भंडारित पाठ्यसामग्री, और मन में उठते विचारों को लेकर ब्लॉग-लेखन यहां भी चल ही रहा है। यहां बहुमंजिली २३ इमारतों वाले विस्तृत परिसर के चारों ओर टहलने में सुबह-शाम आधा-आधा घंटा लग जाता है। टहलते समय परिसर के पर्यावरण, परिसर-निवासियों भाषा-जीवनशैली, कोरोना महामारी, लॉकडाउन एवं समाचारों को लेकर तरह-तरह के विचार मन में उठते हैं। परस्पर असंबद्ध, संक्षिप्त, तथा बिखरे हुए विचार पूर्ववर्ती आलेख तथा इस स्थल पर कलमबद्ध हैं।

[१]

छिद्रेषु अनर्था बहुलीभवन्ति

यह संस्कृत साहित्य की एक उक्ति है जिसका सीधा अर्थ यह है कि विपत्तियां अकेले नहीं आती हैं। अंग्रेजी में इसके लिए “Misfortunes never come single.” अथवा “Misfortunes seldom come alone.” लोकोक्ति उपलब्ध है। इस कहावत को लेकर मैंने एक लेख अपने ब्लॉग में ११ वर्ष पहले लिखा था।

इस वर्ष की शुरुआत से ही पूरी दुनिया कोरोना से पैदा हुई महामारी से जूझ रही है। यह लोगों को रोगी बना रहा है जिसका कोई इलाज अभी उपलब्ध नहीं है जिससे अनेक जन दिवंगत हो रहे हैं। समाचार माध्यम पिछले ३-४ माह से प्रायः सिर्फ कोरोना से जुड़ी खबरें परोस रहे हैं, गोया कि जानने योग्य और कुछ इस संसार में नहीं घट रहा हो। निःसंदेह कोरोना का महाप्रकोप सामुदायिक समस्या बनकर उपस्थित हुआ है लगभग हर राष्ट्र के समक्ष। परंतु मेरी नजर में अधिक दुःखद बात यह है कि इसने तमाम तरह की समस्याएं लोगों के सामने व्यक्तिगत स्तर पर पैदा कर दी हैं। अर्थात् उन समस्याओं का हल खोजना और उनके दुष्परिणाम भुगतना हरएक की व्यक्तिगत नियति बन चुकी है।

इस कोरोना संक्रमण को नियंत्रित करने के लिए अन्य देशों की भांति अपने देश ने भी लॉकडाउन का रास्ता अपनाया है। इससे अनेक परेशानियां पैदा हुई है। देखिए क्या-क्या भुगतना पड़ रहा है संसाधन-विहीन आम आदमी को –

(१) उद्योगधंधों का बंद हो जाना जिससे रोज कमा-खाने वालों के समक्ष रोजी रोटी के लाले पड़ने लगे।

(२) जमा-पूंजी जब चुकने लगी और पर्याप्त मदद नहीं मिली तो अपने पैतृक गांव-घरों को लौटने लगे।

(३) आवागमन के साधन ट्रेन/बस उपलब्ध न होने के कारण उन्हें सामान ढोने वाले ट्रकों में भेड़-बकरियों की तरह ठुंसकर निकलना पड़ा।

(४) जिनको वह भी न मिला पाया वे १०००-१५०० किलोमीटर पैदल नापने को विवश हो गए।

(५) मार्ग में कइयों को जान से हाथ धोना पड़ा बिमारी से या दुर्घटना के शिकार बनकर। दुर्घटनाओं का हृदय-विदारक पक्ष यह रहा कि कहीं कमाने वाला मुखिया चल बसा, तो कहीं मांबाप खोकर बच्चे अनाथ हो गये और किसी को प्रसव-पीड़ा सहनी पड़ी, और किसी नवजात को त्यागना पड़ा। इत्यादि।

ये सब बातें विवश करती हैं कहने को “छिद्रेषु …

[२]

कोरोना काल में लिफ्ट का परित्याग

मैं सदा से ही शारीरिक श्रम का पक्षधर रहा हूं। घर-गृहस्थी के छोटेमोटे काम अपने हाथ से करना पसंद करता हूं। जहां तक संभव हो एक-डेड़ किलोमीटर की दूरी पैदल चलना मेरी रुचि के अनुकूल है। उससे अधिक दो-चार किमी तक साइकिल से जाना ठीक समझता हूं। कभी स्कूटर का भी प्रयोग कर लेता था लेकिन अब बढ़ती उम्र और नगर की बेतरतीब यातायात व्यवस्था के चलते उसका प्रयोग बंद हो चुका है। कार का शौक न पहले था और न अब हैसीड़ियां चढ़ने-उतरने में अभी कोई दिक्कत महसूस नहीं करता।

इधर बेंगलूरु में बहुमंजिली इमारत के सातवें तल पर रह रहा हूं। लॉकडाउन घोषित होने से पहले मैं भूतल से उस तल तक चढ़ने-उतरने के लिए सामान्यतः लिफ्ट का प्रयोग कर रहा था। किंतु जब कोरोना महामारी के दायरा बढ़्ने की खबरें जोरशोर से आने लगीं तो उसे गंभीरता से लेने में ही मुझे बुद्धिमत्ता नजर आई। तब से हम पति-पत्नी सीढ़ियों का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। दिन भर में पत्नी महोदया को एक बार ही ऊपर-नीचे आना-जाना होता है, लेकिन मैं चूंकि दो बार टहलने निकलता हूं अतः मुझे यही कार्य दो बार करना पड़ता है।

बाहर खुले में प्रातःसायं टहलना स्वास्थ्य बनाये के लिए उपयोगी होता है ऐसी राय व्यक्त करते हैं डॉक्टरवृंद। मेरा ख्याल है कि दिन भर में कुछ सीढ़ियां चढ़ना-उतरना भी खुद में शरीर के अस्थि-जोड़ों के लिए लाभप्रद होना चाहिए। जिनके घुटने अभी ठीकठाक चल रहे है उनको दिन भर में सीढ़ियों का भी व्यायाम कर लेना चाहिए।

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कोरोना का संदेश – जनसंख्या नियंत्रण

मेरा मत है कि मौजूदा कोरोना संक्रमण ने एक गंभीर संदेश दिया है। वह है जनसंख्या पर नियंत्रण। हो सकता है देशवासियों को वह नजर न आ रहा हो।

सन् १९६० के दशक में (कदाचित् १९६५ के आसपास) तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण की योजना बनाई और उसका कार्यान्वयन भी सुचारु होने लगा। “हम दो हमारे दो” का नारा दिया गया। बसों तथा अन्य साधनों पर “लाल त्रिकोण” के प्रतीक के साथ यह नारा सर्वत्र प्रचरित होने लगा। लोगों में जागरूकता फैलने लगी और वे स्वेच्छया परिवार नियोजन के विविध साधन अपनाने लगे। शनैःशनैः ही सही नीति सही दिशा में चल रही थी।

दुर्भाग्य से १९७० के दशक में इंदिरा गांधी के कनिष्ठ पुत्र संजय गांधी ने एक “असंवैधानिक” शक्ति के तौर पर उभर कर इस कार्य योजना के लिए जोर-जबर्दस्ती का मार्ग अपनाना शुरू किया। लोगों में असंतोष पनपने लगा, और तथा अन्य कारणों से भी वे आंदोलित होने लगे, आपातकाल घोषित हुआ, यह योजना उसका शिकार बनी।

उसके बाद किसी राजनैतिक दल ने हिम्मत नहीं जुटाई योजना को आगे बढ़ाने की। बाद में खुद कांग्रेस लंबे अरसे तक सत्ता में रही लेकिन उसने भी योजना को भुला दिया।

परिणाम? १९६५ के आसपास देश की आबादी करीब ५० करोड़ थी। आज वह करीब १३५ करोड़ आंकी जाती है, २.७ गुना !! परंतु देश है कि चुप्पी साधे है।

गौर करें आगे प्रस्तुत नक्शे पर जो दिखाता है कि कुछ राज्य हैं जिनकी आबादी बढ़ने की दर अन्य इतनी अधिक है उनके नागरिकों को पेट पालने के लिए दूसरे राज्यों की शरण लेनी पड़ती है। लेकिन इन राज्यों को लज्जा फिर भी नहीं आती। जब कोरोना ने विकट स्थिति पैदा कर दी इन नागरिकों को डेढ़—डेढ़ हजार किमी पैदल चलकर तथाकथित घर लौटना पड़ता है तब भी इन राज्यों को लज्जा नहीं आती। (स्रोतः censusindia.gov.in पर उपलब्ध है।)

राज्यों के पास अपने बाशिंदों के पेट भरने के संसाधन न हों तो भी आबादी बढ़ने देनी चाहिए क्या? आंख खुलेगी कब? – योगेन्द्र जोशी

लॉकडाउन काल में मन में उपजे छिटपुट छितराए विचार

इस समय हम बेंगलूरु में हैं अपने बेटे के पास। एक मास के नियोजित बेंगलूरु-प्रवास के बाद तारीख २२ मार्च को लौटना था अपने गृहनगर वाराणसी को, किंतु पहले “जनता” कर्फ्यू फिर लॉकडाउन घोषित हो जाने पर यात्रा स्थगित कर दी। इस समय उसका चौथा चरण चल रहा है। बीते २१ ता. को हमारे अनियोजित प्रवास के दो माह हो गये। हवाई सेवा प्रारंभ होने की खबर है लेकिन सर्वत्र भ्रम फैला है।

अब ऊब होने लगी है। वैसे मेरे लिए २४ घंटे व्यस्तता से बिताना कोई कठिन काम नहीं है। परंतु इस अनियोजित प्रवास में मेरी जो आम दैनिक चर्या होती थी उससे वंचित हूं, जिसका एहसास रह-रह के बेचैन करता है। अन्यथा इंटरनेट से प्राप्य विविध जानकारी, लैपटॉप पर भंडारित पाठ्यसामग्री, और मन में उठते विचारों को लेकर ब्लॉग-लेखन यहां भी चल ही रहा है।

हम बहुमंजिली इमारतों और उनके बहु-अपार्टमेंटों के विस्तृत परिसर में रह रहे हैं। बाउंडरी से घिरे परिसर के चारों ओर टहलने में आधे घंटे से अधिक समय लग जाता है। टहलना मेरी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा रहा है। टहलते समय परिसर के परिवेश, परिसर-निवासियों के तौरतरीके, मौजूदा महामारी, संबंधित लॉकडाउन, वैश्विक खबरों आदि को देख तरह-तरह के विचार मन में उठते रहते हैं। उनसे जुड़े परस्पर असंबद्ध, संक्षिप्त, तथा बिखरे विचार इस स्थल पर कलमबद्ध हैं।

 

[१] कष्टकर लॉकडाउन

सोशल मीडिया अर्थात् सामाजिक माध्यम पर ऐसे कई किस्से-कहानियां देखने-सुनने को मिल जा रहे हैं जो दिखाते हैं कि लॉकडाउन काल में लोगों को चौबीसों घंटे घर में रुके रहना कितना बेचैन कर रहा है। मनोवैज्ञानिक यह चिंता व्यक्त करते हैं ऐसी स्थिति में कई-कई दिनों तक पड़े रहना कइयों के लिए मानसिक तनाव एवं तज्जन्य मनोरोग का कारण बन सकता है। कुछ लोग टेलीफोन एवं टीवी पर अवश्य समय गुजारते होंगे। आज के युग में शेष दुनिया से संपर्क साधे रहने के कई अन्य साधन भी उपलब्ध हैं।

मेरे मन में यह सवाल रह-रहकर उठता है कि वे लोग जो किसी न किसी ध्येय की प्राप्ति के लिए जिंदगी को दांव पर लगाते हों, जेल की काल-कोठरी में रहने को भी तैयार हो जाते हों, उनकी सहना शक्ति कितनी अधिक होती होगी? जिस हालात में औसत आदमी पागल हो जाए उसमें भी वे बिना मानसिक संतुलन खोये हफ्तों, महीनों या सालों बिता देते हों यह अविश्वसनीय-सा लगता है। देश के स्वाधीनता संघर्ष में देश के अनेक सुपुत्र इस सामर्थ्य के धनी थे। मुझे वीर सावरकर का नाम याद आता है जिनको अंडमान-नीकोबार – अंग्रेजी-काल में कालापानी – में वर्षों कालकोठरी में गुजारने पड़े। कालापानी अर्थात् देश की मुख्यभूमि से हजारों कि.मी. दूर समुद्रस्थ निर्जन द्वीपीय स्थान। वैसी सामर्थ्य एवं इच्छाशक्ति विरलों को ही मिली रहती है। धन्य हैं वे।

[२] मित्रोँ-परिचितों के निधन का दुर्योग

इसे संयोग, वस्तुतः दुर्योग, ही कहा जाएगा कि लॉकडाउन काल में मुझे नजदीकी मित्रों, सहयोगियों एवं रिश्तेदारों से संबंधित शोकसमाचार सुनने को मिले। हादसे तो होते ही रहते हैं लेकिन जिनकी बात मैं कर रहा हूं उनमें एक मेरी पूर्व-सहयोगी, दो पड़ोसी, और दो निकट संबंधी रहे। गौर करने योग्य बात यह थी वे सभी पहले से ही गंभीर रूप से रुग्ण थे और उनकी लंबे जीवन की आशा नहीं थी। दो तो कैंसर-पीड़ित थे, एक हृदयरोगी, और दो जटिल मिश्रित रोगों से ग्रस्त थे। वे महीनों पूर्व भी दिवंगत हो चुके होते, किंतु संयोग यह रहा कि इसी लॉकडाउन काल में उक्त हादसे हुए।

इन लोगों के दिवंगत होने का जो दुःख उनके पारिवारिक सदस्यों को हुआ उससे अधिक कष्ट इस बात का रहा होगा कि वे उनके अंतिम दर्शन भी नहीं कर सके, क्योंकि दूरस्थ होने और आवागमन के साधन बंद होने के कारण वे मन मसोस कर रह गये। मैं दिवंगत आत्माओं की शांति की प्रार्थना करता हूं, और उनके भाई-बहनों, बेटे-बेटियों आदि निकट संबंधियों के प्रति कष्ट सहने की सामर्थ्य की कामना के साथ सहानुभूति व्यक्त करता हूं। प्रार्थना है कि भविष्य में कोई अनिष्ट समाचार सुनने को न मिले।

[३] भविष्यवाणी के प्रति अविश्वास

मैं ज्योतिष में विश्वास नहीं करता, यद्यपि मेरे खानदान की पूर्ववर्ती पीढ़ियों की जीवनचर्या में पौरोहित्य एवं ज्योतिष शामिल थे। भौतिकी (फिजिक्स) का छात्र, अध्येता और अंततः शोधकर्ता-शिक्षक के तौर पर जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे मेरा विश्वास भविष्यवाचन की सभी विधाओँ-कलाओं से उठता चला गया। भौतिकी में प्रकृति के जिन नियमों का अध्ययन किया जाता है और जिन पर आधुनिक टेक्नॉलॉजी (प्रोद्योगिकी, तकनीकी) आधारित है उनके मद्देनजर मेरे मत में भविष्यवाणी संभव नहीं। किंतु परम आस्था जिसको हो वह तो विश्वास करता रहेगा भले ही विफल भविष्यवाणियों की गठरी ही उसके सामने खोल दी जाए।

इधर वैश्विक कोरोना महामारी को देखकर मेरे मन में भविष्यवाणी के प्रति शंका की बात ताजा हो उठी। जो लोग भविष्यवाणी की किसी भी विधा या कला में विश्वास करते हैं उनको इस प्रश्न का उत्तर देना चाहिए कि किसी भी भविष्यवेत्ता ने इस महामारी की भयावहता की बात विगत समय में – महीनों, सालों पहले – क्यों नहीं की? अब यदि घटना घट चुकने के बाद कोई यह दावा करे कि उसे इसका अंदाजा पहले ही लग चुका था तो उसकी अहमियत नहीं है।

सोचने की बात है कि इस सदी की, और मैं तो कहूंगा सन् १९०० के बाद, वैश्विक स्तर की ऐसी कोई महामारी मानवजाति को नहीं झेलनी पड़ी है। विश्व में आधुनिकतम चिकित्सकीय व्यवस्था के उपलब्ध होने और लॉकडाउन का रास्ता अपनाने के बावजूद संक्रमण के मामले बढ़ते जा रहे हैं और मृतकों की संख्या लाखों में पहुंच चुकी है। क्या यह कोई छोटी-मोटी दुर्घटना है जिसे भविष्यवक्ता जान ही न पाये हों?

दरअसल भावी घटनाओं का ज्ञान संभव नहीं है केवल उनका अनुमान लग सकता है यदि पर्याप्त आधार उपलब्ध हों। ऐसे सुविचारित तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं जिनसे उक्त मत सिद्ध होता हो। मैं वह सब यहां पेश नहीं कर सकता क्योंकि यह विषय विशद तर्क-वितर्क का है। -योगेन्द्र जोशी