लॉकडाउन काल में मन में उपजे छिटपुट छितराए विचार (२)

इस समय बेंगलूरु में हूं गृहनगर वाराणसी से दूरलॉकडाउन में कुछ ढील मिल चुकी है। कहने को रेलयात्रा एवं हवाईयात्रा की सुविधा आरंभ हो चुकी है। लेकिन भ्रम इतना फैला है कि वापसी यात्रा की तिथि तय नहीं हो पा रही है। मैं २४ घंटे व्यस्तता से बिता सकता हूं, परंतु दो-अढाई मास के इस अनियोजित प्रवास में अपनी आम दैनिक चर्या से वंचित हूं, जिसका एहसास रह-रह के बेचैन करता है। अन्यथा इंटरनेट से प्राप्य विविध जानकारी, लैपटॉप पर भंडारित पाठ्यसामग्री, और मन में उठते विचारों को लेकर ब्लॉग-लेखन यहां भी चल ही रहा है। यहां बहुमंजिली २३ इमारतों वाले विस्तृत परिसर के चारों ओर टहलने में सुबह-शाम आधा-आधा घंटा लग जाता है। टहलते समय परिसर के पर्यावरण, परिसर-निवासियों भाषा-जीवनशैली, कोरोना महामारी, लॉकडाउन एवं समाचारों को लेकर तरह-तरह के विचार मन में उठते हैं। परस्पर असंबद्ध, संक्षिप्त, तथा बिखरे हुए विचार पूर्ववर्ती आलेख तथा इस स्थल पर कलमबद्ध हैं।

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छिद्रेषु अनर्था बहुलीभवन्ति

यह संस्कृत साहित्य की एक उक्ति है जिसका सीधा अर्थ यह है कि विपत्तियां अकेले नहीं आती हैं। अंग्रेजी में इसके लिए “Misfortunes never come single.” अथवा “Misfortunes seldom come alone.” लोकोक्ति उपलब्ध है। इस कहावत को लेकर मैंने एक लेख अपने ब्लॉग में ११ वर्ष पहले लिखा था।

इस वर्ष की शुरुआत से ही पूरी दुनिया कोरोना से पैदा हुई महामारी से जूझ रही है। यह लोगों को रोगी बना रहा है जिसका कोई इलाज अभी उपलब्ध नहीं है जिससे अनेक जन दिवंगत हो रहे हैं। समाचार माध्यम पिछले ३-४ माह से प्रायः सिर्फ कोरोना से जुड़ी खबरें परोस रहे हैं, गोया कि जानने योग्य और कुछ इस संसार में नहीं घट रहा हो। निःसंदेह कोरोना का महाप्रकोप सामुदायिक समस्या बनकर उपस्थित हुआ है लगभग हर राष्ट्र के समक्ष। परंतु मेरी नजर में अधिक दुःखद बात यह है कि इसने तमाम तरह की समस्याएं लोगों के सामने व्यक्तिगत स्तर पर पैदा कर दी हैं। अर्थात् उन समस्याओं का हल खोजना और उनके दुष्परिणाम भुगतना हरएक की व्यक्तिगत नियति बन चुकी है।

इस कोरोना संक्रमण को नियंत्रित करने के लिए अन्य देशों की भांति अपने देश ने भी लॉकडाउन का रास्ता अपनाया है। इससे अनेक परेशानियां पैदा हुई है। देखिए क्या-क्या भुगतना पड़ रहा है संसाधन-विहीन आम आदमी को –

(१) उद्योगधंधों का बंद हो जाना जिससे रोज कमा-खाने वालों के समक्ष रोजी रोटी के लाले पड़ने लगे।

(२) जमा-पूंजी जब चुकने लगी और पर्याप्त मदद नहीं मिली तो अपने पैतृक गांव-घरों को लौटने लगे।

(३) आवागमन के साधन ट्रेन/बस उपलब्ध न होने के कारण उन्हें सामान ढोने वाले ट्रकों में भेड़-बकरियों की तरह ठुंसकर निकलना पड़ा।

(४) जिनको वह भी न मिला पाया वे १०००-१५०० किलोमीटर पैदल नापने को विवश हो गए।

(५) मार्ग में कइयों को जान से हाथ धोना पड़ा बिमारी से या दुर्घटना के शिकार बनकर। दुर्घटनाओं का हृदय-विदारक पक्ष यह रहा कि कहीं कमाने वाला मुखिया चल बसा, तो कहीं मांबाप खोकर बच्चे अनाथ हो गये और किसी को प्रसव-पीड़ा सहनी पड़ी, और किसी नवजात को त्यागना पड़ा। इत्यादि।

ये सब बातें विवश करती हैं कहने को “छिद्रेषु …

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कोरोना काल में लिफ्ट का परित्याग

मैं सदा से ही शारीरिक श्रम का पक्षधर रहा हूं। घर-गृहस्थी के छोटेमोटे काम अपने हाथ से करना पसंद करता हूं। जहां तक संभव हो एक-डेड़ किलोमीटर की दूरी पैदल चलना मेरी रुचि के अनुकूल है। उससे अधिक दो-चार किमी तक साइकिल से जाना ठीक समझता हूं। कभी स्कूटर का भी प्रयोग कर लेता था लेकिन अब बढ़ती उम्र और नगर की बेतरतीब यातायात व्यवस्था के चलते उसका प्रयोग बंद हो चुका है। कार का शौक न पहले था और न अब हैसीड़ियां चढ़ने-उतरने में अभी कोई दिक्कत महसूस नहीं करता।

इधर बेंगलूरु में बहुमंजिली इमारत के सातवें तल पर रह रहा हूं। लॉकडाउन घोषित होने से पहले मैं भूतल से उस तल तक चढ़ने-उतरने के लिए सामान्यतः लिफ्ट का प्रयोग कर रहा था। किंतु जब कोरोना महामारी के दायरा बढ़्ने की खबरें जोरशोर से आने लगीं तो उसे गंभीरता से लेने में ही मुझे बुद्धिमत्ता नजर आई। तब से हम पति-पत्नी सीढ़ियों का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। दिन भर में पत्नी महोदया को एक बार ही ऊपर-नीचे आना-जाना होता है, लेकिन मैं चूंकि दो बार टहलने निकलता हूं अतः मुझे यही कार्य दो बार करना पड़ता है।

बाहर खुले में प्रातःसायं टहलना स्वास्थ्य बनाये के लिए उपयोगी होता है ऐसी राय व्यक्त करते हैं डॉक्टरवृंद। मेरा ख्याल है कि दिन भर में कुछ सीढ़ियां चढ़ना-उतरना भी खुद में शरीर के अस्थि-जोड़ों के लिए लाभप्रद होना चाहिए। जिनके घुटने अभी ठीकठाक चल रहे है उनको दिन भर में सीढ़ियों का भी व्यायाम कर लेना चाहिए।

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कोरोना का संदेश – जनसंख्या नियंत्रण

मेरा मत है कि मौजूदा कोरोना संक्रमण ने एक गंभीर संदेश दिया है। वह है जनसंख्या पर नियंत्रण। हो सकता है देशवासियों को वह नजर न आ रहा हो।

सन् १९६० के दशक में (कदाचित् १९६५ के आसपास) तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण की योजना बनाई और उसका कार्यान्वयन भी सुचारु होने लगा। “हम दो हमारे दो” का नारा दिया गया। बसों तथा अन्य साधनों पर “लाल त्रिकोण” के प्रतीक के साथ यह नारा सर्वत्र प्रचरित होने लगा। लोगों में जागरूकता फैलने लगी और वे स्वेच्छया परिवार नियोजन के विविध साधन अपनाने लगे। शनैःशनैः ही सही नीति सही दिशा में चल रही थी।

दुर्भाग्य से १९७० के दशक में इंदिरा गांधी के कनिष्ठ पुत्र संजय गांधी ने एक “असंवैधानिक” शक्ति के तौर पर उभर कर इस कार्य योजना के लिए जोर-जबर्दस्ती का मार्ग अपनाना शुरू किया। लोगों में असंतोष पनपने लगा, और तथा अन्य कारणों से भी वे आंदोलित होने लगे, आपातकाल घोषित हुआ, यह योजना उसका शिकार बनी।

उसके बाद किसी राजनैतिक दल ने हिम्मत नहीं जुटाई योजना को आगे बढ़ाने की। बाद में खुद कांग्रेस लंबे अरसे तक सत्ता में रही लेकिन उसने भी योजना को भुला दिया।

परिणाम? १९६५ के आसपास देश की आबादी करीब ५० करोड़ थी। आज वह करीब १३५ करोड़ आंकी जाती है, २.७ गुना !! परंतु देश है कि चुप्पी साधे है।

गौर करें आगे प्रस्तुत नक्शे पर जो दिखाता है कि कुछ राज्य हैं जिनकी आबादी बढ़ने की दर अन्य इतनी अधिक है उनके नागरिकों को पेट पालने के लिए दूसरे राज्यों की शरण लेनी पड़ती है। लेकिन इन राज्यों को लज्जा फिर भी नहीं आती। जब कोरोना ने विकट स्थिति पैदा कर दी इन नागरिकों को डेढ़—डेढ़ हजार किमी पैदल चलकर तथाकथित घर लौटना पड़ता है तब भी इन राज्यों को लज्जा नहीं आती। (स्रोतः censusindia.gov.in पर उपलब्ध है।)

राज्यों के पास अपने बाशिंदों के पेट भरने के संसाधन न हों तो भी आबादी बढ़ने देनी चाहिए क्या? आंख खुलेगी कब? – योगेन्द्र जोशी

लॉकडाउन काल में मन में उपजे छिटपुट छितराए विचार

इस समय हम बेंगलूरु में हैं अपने बेटे के पास। एक मास के नियोजित बेंगलूरु-प्रवास के बाद तारीख २२ मार्च को लौटना था अपने गृहनगर वाराणसी को, किंतु पहले “जनता” कर्फ्यू फिर लॉकडाउन घोषित हो जाने पर यात्रा स्थगित कर दी। इस समय उसका चौथा चरण चल रहा है। बीते २१ ता. को हमारे अनियोजित प्रवास के दो माह हो गये। हवाई सेवा प्रारंभ होने की खबर है लेकिन सर्वत्र भ्रम फैला है।

अब ऊब होने लगी है। वैसे मेरे लिए २४ घंटे व्यस्तता से बिताना कोई कठिन काम नहीं है। परंतु इस अनियोजित प्रवास में मेरी जो आम दैनिक चर्या होती थी उससे वंचित हूं, जिसका एहसास रह-रह के बेचैन करता है। अन्यथा इंटरनेट से प्राप्य विविध जानकारी, लैपटॉप पर भंडारित पाठ्यसामग्री, और मन में उठते विचारों को लेकर ब्लॉग-लेखन यहां भी चल ही रहा है।

हम बहुमंजिली इमारतों और उनके बहु-अपार्टमेंटों के विस्तृत परिसर में रह रहे हैं। बाउंडरी से घिरे परिसर के चारों ओर टहलने में आधे घंटे से अधिक समय लग जाता है। टहलना मेरी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा रहा है। टहलते समय परिसर के परिवेश, परिसर-निवासियों के तौरतरीके, मौजूदा महामारी, संबंधित लॉकडाउन, वैश्विक खबरों आदि को देख तरह-तरह के विचार मन में उठते रहते हैं। उनसे जुड़े परस्पर असंबद्ध, संक्षिप्त, तथा बिखरे विचार इस स्थल पर कलमबद्ध हैं।

 

[१] कष्टकर लॉकडाउन

सोशल मीडिया अर्थात् सामाजिक माध्यम पर ऐसे कई किस्से-कहानियां देखने-सुनने को मिल जा रहे हैं जो दिखाते हैं कि लॉकडाउन काल में लोगों को चौबीसों घंटे घर में रुके रहना कितना बेचैन कर रहा है। मनोवैज्ञानिक यह चिंता व्यक्त करते हैं ऐसी स्थिति में कई-कई दिनों तक पड़े रहना कइयों के लिए मानसिक तनाव एवं तज्जन्य मनोरोग का कारण बन सकता है। कुछ लोग टेलीफोन एवं टीवी पर अवश्य समय गुजारते होंगे। आज के युग में शेष दुनिया से संपर्क साधे रहने के कई अन्य साधन भी उपलब्ध हैं।

मेरे मन में यह सवाल रह-रहकर उठता है कि वे लोग जो किसी न किसी ध्येय की प्राप्ति के लिए जिंदगी को दांव पर लगाते हों, जेल की काल-कोठरी में रहने को भी तैयार हो जाते हों, उनकी सहना शक्ति कितनी अधिक होती होगी? जिस हालात में औसत आदमी पागल हो जाए उसमें भी वे बिना मानसिक संतुलन खोये हफ्तों, महीनों या सालों बिता देते हों यह अविश्वसनीय-सा लगता है। देश के स्वाधीनता संघर्ष में देश के अनेक सुपुत्र इस सामर्थ्य के धनी थे। मुझे वीर सावरकर का नाम याद आता है जिनको अंडमान-नीकोबार – अंग्रेजी-काल में कालापानी – में वर्षों कालकोठरी में गुजारने पड़े। कालापानी अर्थात् देश की मुख्यभूमि से हजारों कि.मी. दूर समुद्रस्थ निर्जन द्वीपीय स्थान। वैसी सामर्थ्य एवं इच्छाशक्ति विरलों को ही मिली रहती है। धन्य हैं वे।

[२] मित्रोँ-परिचितों के निधन का दुर्योग

इसे संयोग, वस्तुतः दुर्योग, ही कहा जाएगा कि लॉकडाउन काल में मुझे नजदीकी मित्रों, सहयोगियों एवं रिश्तेदारों से संबंधित शोकसमाचार सुनने को मिले। हादसे तो होते ही रहते हैं लेकिन जिनकी बात मैं कर रहा हूं उनमें एक मेरी पूर्व-सहयोगी, दो पड़ोसी, और दो निकट संबंधी रहे। गौर करने योग्य बात यह थी वे सभी पहले से ही गंभीर रूप से रुग्ण थे और उनकी लंबे जीवन की आशा नहीं थी। दो तो कैंसर-पीड़ित थे, एक हृदयरोगी, और दो जटिल मिश्रित रोगों से ग्रस्त थे। वे महीनों पूर्व भी दिवंगत हो चुके होते, किंतु संयोग यह रहा कि इसी लॉकडाउन काल में उक्त हादसे हुए।

इन लोगों के दिवंगत होने का जो दुःख उनके पारिवारिक सदस्यों को हुआ उससे अधिक कष्ट इस बात का रहा होगा कि वे उनके अंतिम दर्शन भी नहीं कर सके, क्योंकि दूरस्थ होने और आवागमन के साधन बंद होने के कारण वे मन मसोस कर रह गये। मैं दिवंगत आत्माओं की शांति की प्रार्थना करता हूं, और उनके भाई-बहनों, बेटे-बेटियों आदि निकट संबंधियों के प्रति कष्ट सहने की सामर्थ्य की कामना के साथ सहानुभूति व्यक्त करता हूं। प्रार्थना है कि भविष्य में कोई अनिष्ट समाचार सुनने को न मिले।

[३] भविष्यवाणी के प्रति अविश्वास

मैं ज्योतिष में विश्वास नहीं करता, यद्यपि मेरे खानदान की पूर्ववर्ती पीढ़ियों की जीवनचर्या में पौरोहित्य एवं ज्योतिष शामिल थे। भौतिकी (फिजिक्स) का छात्र, अध्येता और अंततः शोधकर्ता-शिक्षक के तौर पर जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे मेरा विश्वास भविष्यवाचन की सभी विधाओँ-कलाओं से उठता चला गया। भौतिकी में प्रकृति के जिन नियमों का अध्ययन किया जाता है और जिन पर आधुनिक टेक्नॉलॉजी (प्रोद्योगिकी, तकनीकी) आधारित है उनके मद्देनजर मेरे मत में भविष्यवाणी संभव नहीं। किंतु परम आस्था जिसको हो वह तो विश्वास करता रहेगा भले ही विफल भविष्यवाणियों की गठरी ही उसके सामने खोल दी जाए।

इधर वैश्विक कोरोना महामारी को देखकर मेरे मन में भविष्यवाणी के प्रति शंका की बात ताजा हो उठी। जो लोग भविष्यवाणी की किसी भी विधा या कला में विश्वास करते हैं उनको इस प्रश्न का उत्तर देना चाहिए कि किसी भी भविष्यवेत्ता ने इस महामारी की भयावहता की बात विगत समय में – महीनों, सालों पहले – क्यों नहीं की? अब यदि घटना घट चुकने के बाद कोई यह दावा करे कि उसे इसका अंदाजा पहले ही लग चुका था तो उसकी अहमियत नहीं है।

सोचने की बात है कि इस सदी की, और मैं तो कहूंगा सन् १९०० के बाद, वैश्विक स्तर की ऐसी कोई महामारी मानवजाति को नहीं झेलनी पड़ी है। विश्व में आधुनिकतम चिकित्सकीय व्यवस्था के उपलब्ध होने और लॉकडाउन का रास्ता अपनाने के बावजूद संक्रमण के मामले बढ़ते जा रहे हैं और मृतकों की संख्या लाखों में पहुंच चुकी है। क्या यह कोई छोटी-मोटी दुर्घटना है जिसे भविष्यवक्ता जान ही न पाये हों?

दरअसल भावी घटनाओं का ज्ञान संभव नहीं है केवल उनका अनुमान लग सकता है यदि पर्याप्त आधार उपलब्ध हों। ऐसे सुविचारित तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं जिनसे उक्त मत सिद्ध होता हो। मैं वह सब यहां पेश नहीं कर सकता क्योंकि यह विषय विशद तर्क-वितर्क का है। -योगेन्द्र जोशी

कोरोना ने लगाई लगाम शराब पै – बेचैन हुए शौकीन

पिछले करीब दो माह से देश लॉकडाउन झेल रहा है। देश भर में कुछ जिले है जहां महामारी का प्रकोप गंभीर है। उन जिलों को रेड ज़ोन यानी लाल क्षेत्र नाम दिया गया है। ये वे क्षेत्र हैं जहां तमाम गतिविधियां थम-सी गई है। अत्यावश्यक कार्य के लिए ही किसी व्यक्ति को घर से बाहर निकलने की अनुमति है। खाद्य पदार्थों की आपूर्ति होम-डिलीवरी से की जा रही है। लेकिन शराब जैसी खूबसूरत चीज की आपूर्ति की कोई व्यवस्था नहीं की गयी। लॉकडाउन जैसी दशा में घरों में कैद रहने से कोई शख्स जहां उबिया रहा हो वहां गम गलत करने का साधन शराब भी नसीब न हो तो सोचिए बंदे की हालत क्या होगी?

वाह! खुल गयी दुकान

शराब की दुकानों को खोलने की सरकार ने चंद रोज पहले इजाजत क्या दी कि मदिरापान के शौकीनों की जैसे लॉटरी ही खुल गयी। न लॉकडाउन के नियमों का ख्याल किसी को रहा और न ही अपनी तथा अगल-बगल के अन्य जनों के कोरोना से बचाव की चिंता। समाचार माध्यमों ने देश के प्रायः सभी इलाकों के मदिरा विक्रय केन्द्रों के सामने की जिस भीड़ की तस्वीरें पेश कीं उनको शब्दों में बयाँ करना मेरे लिए मुश्किल है।

शराब को लेकर जान तक दाँव पर लगाने वालों को देख मुझे बीते जमाने के अपने अनुभवों की याद हो आई। किसी को गलतफहमी न हो सो इस बाबत बता दूं कि मैं शराब का शौकीन नहीं हूं और न कभी पहले रहा। लेकिन उसे छुआ है और पिया भी है, नियमतः तो नहीं बस यदा-कदा। इसे सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य – आप जो ठीक समझें – अपने को जो अड़ोसी-पड़ोसी, यार-दोस्त, सहकर्मी, नाते-रिश्तेदार, मिले वे भी इस खूबसूरत पेय का शौक नहीं अपना सके। इतने सब के बावजूद मैं इसका अंदाजा लगा ही सकता हूं कि शराब के बिना क्या गत होती होगी किसी शौकीन की, शायद “जल बिन मीन” की सी।

जैसा कह चुका हूं मैंने शराब का आस्वादन किया है। शराब का ही नहीं और व्यसनों का भी अनुभव लिया है। बीड़ी-सिगरेट पी रखी है; पान गुटके का सेवन भी कर रखा है, बहुत कुछ जिज्ञासावश, कुछ तो बचपन में ही। कब कौन-सा व्यसन दिमाग में आया और फिर ग़ायब हुआ इसे बताने से पहले यह बता दूं कि सब कुछ अनुभव करने के बाद वयस्क होते-होते इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि नशे की किसी चीज का कोई गंभीर मकसद नहीं, कोई आकर्षण नहीं, फिजूलखर्ची से आगे सब निरुपयोगी ही हैं, सभी मनुष्य की कमजोरी को प्रबिंबित करते हैं, आदि-आदि। जब कभी कोई कहता है कि फलां आदत छूट नहीं रही है तो मेरी टिप्पणी यही होती है कि जब आप छोड़ना ही न चाहें तो छूटेगी कैसे। कोई दूसरा तो आदत के लिए मजबूर कर नहीं रहा होगा। नशा आप शुरू करें तो आप ही को छोड़ना होगा। इत्यादि।

जैसा कह चुका हूं बीड़ी-सिगरेट, गुटखा, शराब-बियर का आस्वादन मैंने भी किया है, लेकिन जिंदगी के अलग-अलग वर्षों में और अल्प अंतरालों के लिए। लेकिन इन नशों का गुलाम बनने से बचता रहा। मौजूदा कोरोना-काल की उपर्युल्लिखित घटना को लेकर मन हुआ कि अपना अनुभव साझा करूं।

आरंभ इस खुलासे से करता हूं कि मेरा जन्म उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल कुमाऊं के एक छोटे-से गांव में हुआ था, आठ-नौ परिवारों का गांव। सभी एक ही पूर्वजों की संतानें थे और आपस में ताऊ-ताई, चाचा-बुआ, भाई-भतीजे जैसे घनिष्ठ रिश्तों से जुड़े थे। गांव में लगभग १०-१२ बच्चे रहे होंगे और उनमें से हम-उम्रों की आपस में दोस्ती सहज तौर पर हुई रहती थी। मैं सन् १९५५ के आसपास की बात कर रहा हूं जब मैं प्राथमिक पाठशाला में पढ़ता था।

बीड़ी का चस्का

मेरा एक दोस्त था। हमें एक बार विचार आया कि क्यों न बीड़ी पी जाए। बड़े लोगों को पीते देखते थे तो अपने को भी इच्छा हो जाती थी। लेकिन बीड़ी मिले कहां से। सो बड़ों को ताके रहते थे और उनके बुझाए हुए बीड़ी के टुकड़े उठा लाते थे और उन्हें सुलगा के पीते थे। पीते क्या थे मुंह में धुआं भरकर हवा में महज फूंक मारते थे। इतना ही हमारे लिए काफी था। यह सब चोरीछिपे होता था। फिर भी पता नहीं कैसे एक दिन मेरी बड़ी बहिनजी तक बीड़ी की गंध पहुंच गयी और वह हमारे सामने अवतरित हो गईं। मेरा मुंह खुलवाकर सूंघा और लगाई डांट। भागे हम वहां से।

इतने से कोई असर हम पर पड़ने वाला नहीं था। हमने किसी प्रकार दोएक रुपये का इंतिजाम किया और ले आये दुकान से ताजा “घोड़ा छाप” बीड़ी का बंडल और “विम्को की एक्का छाप” दियासलाई की डिब्बी। इन्हें हमने अपने घर के निकट सीड़ीनुमा एक खेत की दीवाल के कोटर में छिपा दिया था। (पर्वतीय क्षेत्र में आम तौर पर सीड़ीनुमा खेत ही मिलते हैं।) रोज शाम को हम बीड़ी का आनंद लेने चुपचाप आते थे। लेकिन एक दिन मेरे दोस्त की माताजी को पता चल गया। वे कहीं आसपास काम कर रही थीं और कमवक्त बीड़ी की गंध उन तक पहुंच गयी। वे पहुंची पास और ऐसी डांट लगाई हमें कि बीड़ी-सिगरेट का भूत सर से उतर गया।

समय बीतता गया और मैं प्राथमिक (प्राइमरी) शिक्षा पार कर माध्यमिक (जूनियर) शिक्षा के लिए गांव से बाहर चला गया। उसके बाद मेरी विश्वविद्यालय तक की शिक्षा बाहर ही हुई। समय के उस अंतराल में मुझे किसी प्रकार के व्यसन का न तो ध्यान आया और न ही कोई मौका मिला।

सिगरेट का मजा

स्नातकोत्तर (एम.एससी.) उपाधि पा लेने के बाद मैंने अपने एक सहपाठी एवं मित्र के साथ शोध-पाठ्यक्रम में दाखिला लिया। इसी दौरान हमें दो चीजों का शौक चर्रायाः पहला था दाढ़ी रखना और दूसरा था सिगरेट पीना। दाढ़ी तो तब से बरकरार है; लेकिन सिगरेट साल भर से कम ही चल पाई। मैं दिन भर में ५-१० सिगरेट से अधिक नहीं पीता था। एक बार मैं एक-डेढ़ माह के लिए बेंगलूरु गया था। तभी एक दिन रात में मुझे बेचैन करने वाला सपना दिखा सिगरेट से जुड़ा हुआ। बस उसके बाद मैंने सिगरेट छोड़ दी। मैंने इस घटना पर आधारित लघुकथा अन्य ब्लॉग में लिखी थी।

ब्रैंडी-अंडे का पेय

शोध पाठ्यक्रम से अर्जित डाक्टरेट की उपाधि पाकर मैं वाराणसी आ गया और वहीं बी.एच.यू. में बतौर शिक्षक मैंने नियुक्ति ले ली। वह मेरी युवावस्था का काल था। मेरी उम्र पच्चीस-छब्बीस वर्ष की रही होगी। मै शरीर से सदा ही दुबला-पतला रहा हूं। एक बार मेरे मन में थोड़ा-बहुत मोटा होने का विचार आया। एक वरिष्ठ साथी ने सलाह दी कि मैं अंडे की जर्दी-अलब्युमिन का ब्रैंडी (brandy) के साथ मिलाकर सेवन करूं। क्या स्वाद रहा होगा इसका अनुमान लगा सकते हैं। करीब महीना भर सेवन किया होगा। शरीर या मस्तिष्क कहीं पर भी उसका असर नहीं पड़ा। छोड़ दिया। किसी अल्कोहॉलीय पेय का यह प्रथम अनुभव था मेरा।

वाराणसी में पान का चलन बहुत अधिक है। मैंने भी इसका आनंद उठाने की कोशिश की। लेकिन पान-सुपाड़ी मुझे रास नहीं आई। जब भी खाऊं गला सूख-सा जाता था, थूक निगलने में परेशानी होने लगती, कान की लौ गरम हो उठतीं। मैंने पान खाना ही बंद कर दिया पूरी तरह। बनारस में रहने के बावजूद पान से दूर ही रहा।

अल्कोहॉलीय पेय

अल्कोहॉलीय पेय का दूसरा अनुभव मेरा शेरी (sherry) आस्वादन का है। एक बार मैं शिलांग (मेघालय) किसी गोष्ठी में भाग लेने गया था। वहां स्थानीय स्तर पर निर्मित शेरी के मुझे दर्शन हुए। एक बोतल खरीद ले आया। वाराणसी लौटकर उसका भी सेवन किया दो-चार दिन थोड़ा-थोड़ा करके।

इसके बाद का अनुभव मेरा इंग्लैंड का है जहां मैं दो वर्ष के लिए शोधवृत्ति पर गया था (१९८३-१९८५)। शुरुआत के कुछएक माह मैंने पाकिस्तानी मूल के किसी पंजाबी खान साहब के मकान में किराये पर रहकर बिताए। वे खुद सड़क के पार अपने दूसरे मकान में रहते थे। वे यदाकदा गपशप मारने मेरे पास चले आते थे। उस इलाके में हिंदी-उर्दू बोलने वाला उनको शायद अकेला मैं ही मिला था। वे कभी-कभी “पब” (मयखाना) में बियर पीने की पेशकश करते थे और अपनी वैन से ले चलते थे। मैं एकदम-से मना नहीं करता था और उनकी पेश की हुई एक बियर-गिलास पी लेता था। वे स्वयं दो-तीन गिलास पी जाते थे। सच कहूं तो मुझे कोई मजा नहीं आता था। लेकिन उनका साथ दे देता था। मुझसे एक प्रकार की दोस्ती हो गई थी उनकी।

यह था बियर पीने का मेरा अनुभव। छः-सात माह महीने बाद जब मेरा परिवार भारत से पहुंचा तो मुझे बड़ा आवास किराये पर लेना पड़ा। तब खान साहब का साथ छूट गया और उसी के साथ बियर पीने के मौके भी छूटे।

यूरोपीय समाज तथा वाइन

यूरोपीय देशों में भोजन के समय वाइन (अंगूर से बनी मदिरा) का सेवन आम बात है। मैंने सुना था कि पहले कभी इंग्लैंड जैसे देशों में पानी पीने का चलन नहीं था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। जब विश्वविद्यालय के मेरे शैक्षिक विभाग में भोज का कार्यक्रम होता था जैसे क्रिसमस के मौके पर तो उसमें शराब (वाइन),  कृत्रिम-पेय (सॉफ्ट-ड्रिंक), फलों का रस (फ्रूट-जूस), तथा सादा पानी, सभी उपलब्ध रहते थे। मैं वाइन न लेकर फल-रस पीता था। मुझे याद नहीं कि इंग्लैंड में अपने शेष प्रवास के दौरान मैंने वाइन कभी पी थी या नहीं। भारत लौटने पर शराब जैसी हर चीज से मैंने तौबा कर ली। बस अब चाय-काफी की आदत रह गई।

मैंने लंबे अरसे तक कोई व्यसन नहीं पाला सिवाय सिगरेट के और वह भी साल भर से कम। मैंने किसी में भी वह आकर्षण नहीं पाया जो मुझे उससे जोड़े रखता। जब कोई कहता है कि वह अपनी लत नहीं छोड़ सकता तो मेरा कहना होता कि वह कमजोर आत्मसंयम का व्यक्ति है और सार्थक संकल्प नहीं ले सकता है। – योगेंद्र जोशी