केंद्रीय बजट 2010: कितना उम्दा कितना घटिया कहना मुश्किल क्योंकि …

कल केंद्र सरकार के माननीय वित्तमंत्री, प्रणवदादा, ने अपने ‘महान्’ देश का बजट संसद से पास करा लिया । तब से संचार माध्यमों के माध्यम से उस पर तमाम प्रतिक्रियाएं सुनने को मिल रही हैं । प्रतिक्रियाओं का सिलसिला दो-एक दिन और चलेगा । फिर उसके बाद सब सामान्य हो जायेगा, देश की गाड़ी भगवान् भरोसे सदैव की भांति चल पड़ेगी । जो आर्थिक रूप से संपन्न हैं उन्हें बजट से कोई फर्क नहीं पड़ता, और जो कमजोर हैं उन्हें भी कोई फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि उनकी नियति में सदा की भांति हर रोज कुआं खोदकर पानी पीना लिखा है । वे भारत में रहते हैं, और बजट इंडिया के लोगों के लिए इंडिया में रहने वाले एवं राजकाज चलाने वालों द्वारा तैयार होता है, जिनके लिए उनके अस्तित्व की कोई खास अहमियत नहीं । न ही उस वर्ग के किसी व्यक्ति को मैंने टीवी पर्दे पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सुना है । इंडिया और भारत के अंतर को तो अब सभी ‘बुद्धिजीवी’ स्वीकारते हैं ।

इस बजट पर मेरी कोई प्रतिक्रिया नहीं है । मेरे लिए तो हर बजट एक बजट होता है, साल भर के लिए, न अच्छा न बुरा । अच्छा-बुरा तो इस पर निर्भर करता है कि आप किस कोण से इसे देखते हैं । किसी के लिए यह अच्छा है तो किसी के लिए घटिया । सत्तासीन दल सदा ही अपनी पीठ थपथपाता है यह कहते हुए कि बढ़िया है, और विपक्ष के लिए उसे घटिया करार देना विवशता है । उसे तो विपक्ष का विरोध-धर्म निभाना होता है । दोनों अपने-अपने धर्म से बंधे हैं । इस बार तो विपक्ष ने एकजुट होकर संसद से बहिर्गमन भी कर डाला, गोया कि इससे बजट का स्वरूप बदल जायेगा, या देश की आर्थिक स्थिति बदल जाऐगी । जो हो गया सो हो गया, सदन में बैठे रहें या बाहर निकलकर ऊंची-ऊंची हांकें ।

हर सरकार अपना बजट कतिपय प्राथमिकताओं के आधार पर तय करती है । ध्यान रहे कि राजनैतिक दलों की प्राथमिकताएं एक जैसी नहीं होती हैं । अगर एक ही होतीं तो उनके बीच नीतिगत विरोध ही क्यों होता ? क्या कभी ऐसा बजट बन सकता है जो सबके लिए समान रूप से स्वीकार्य हो, जिसे सभी अपने-अपने हितों के अनुकूल देख सकते हों ? मेरा तार्किक मन यही मानता है कि ऐसा असंभव है । अगर आप समान आमदनी वाले गृहस्थ लोगों के बजटों पर ही ध्यान दें तो यह बात समझ में आ जाएगी । क्या सभी एक प्रकार से ही अपने धन का उपयोग करते हैं ? कोई बचत पर जोर देते हुए अधिकाधिक धन जमा करता है, ताकि भविष्य में निजी मकान का ख्वाब पूरा कर सके, तो कोई दूसरा चार पहिए के वाहन के लिए बचत करता है जिससे उसकी ‘सामाजिक प्रतिष्ठा’ में वृद्धि हो सके, तथा कोई अन्य खाओ-पियो और ऐश करो, कल की ज्यादा फिक्र मत करो की नीति अपनाता है । कोई व्यक्ति अपनी बेटियों के दहेज के लिए आरंभ से ही बचत करने लगता है, तो कोई अन्य उनकी पढ़ाई-लिखाई पर धन खर्च करना बेहतर समझता है, ताकि वे समय आने पर अपने पैर पर खड़े हो सकें । कोई व्यक्ति ब्रैंडेड और कीमती कपड़ों पर पैसा खर्च करता है, तो कोई और उसके बदले पौष्टिक भोजन को प्राथमिकता देता है । सबकी सोच भिन्न-भिन्न रहती है । किसे सही कहेंगे और किस गलत ? जो एक की समझ में करने योग्य है वह दूसरे की दृष्टि में मुर्खतापूर्ण । कुछ ऐसा ही देश के बजट के संदर्भ में कहा जा सकता है । सरकारों की सोच भी अलग-अलग होती है, दृष्टांत के तौर पर इस पर गौर करें कि उत्तर प्रदेश की माननीया मुख्यमंत्री, सुश्री मायावतीजी, के लिए अबेडकर पार्क बनवाना और उनमें अपनी ही मूर्तियां लगवाना एक प्राथमिकता है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट को भी आपत्ति नहीं है ।

बजट को लेकर जो तमाम प्रतिक्रियाएं मेरे कान में पड़ती हैं उनसे मेरा सिर चकराता जरूर है । अपने शैक्षिक जीवन में मुझे अव्वल दर्जे का छात्र माना जाता था । गणित तथा भौतिकी (फिजिक्स) जैसे आम तौर पर दुरूह समझे जाने वाले विषय मेरे लिए कभी कठिन नहीं रहे हैं । इन विषयों के सवालों को हल करने में मुझे खास दिक्कत कभी नहीं होती थी । मेरा अपने बारे में यह भ्रम रहा है कि मेरी समझने-बूझने एवं तार्किक समीक्षा की सामर्थ्य औसत से अच्छी ही रही है । लेकिन जब बजट पर लोगों की प्रतिक्रियाएं सुनता हूं तो लगता है मेरी समझने की ताकत निहायत घटिया है । राजनेताओं एवं आम लोगों की प्रतिक्रियाएं मुझे तर्कसम्मत नहीं लगतीं । आखिर वे लोग तो सोच-समझकर ही कुछ कहते होंगे न ? तब फिर मेरे गले से नीचे वे क्यों नहीं उतर पाती हैं । मेरी समझदानी में ही कहीं खोट होना चाहिए ।

मैं पूछता हूं कि यदि देश के चुनिंदा अर्थशास्त्रियों को एक साथ बिठा दिया जाये और उनसे एक खूबसूरत बजट बनाने को कहा जाये तो वे क्या ऐसा कर सकेंगे ? मुझे लगता है कि तब भी उम्दा बजट एक ख्वाब ही रहेगा । ऐसा मैं इसलिए कहता हूं क्योंकि अर्थशास्त्रियों की भी बजट पर प्रतिक्रियाएं एक जैसी सुनने को नहीं मिलती हैं ।

याद रहे कि बजट देश के आय के स्रोतों का निश्चित करना और व्यय की प्राथमिकताएं तय करना है । दोनों के बीच संतुलन बनाए रखना बजट बनाने की कला का हिस्सा है । आम तौर पर घाटे के बजट ही सदा बनते रहे हैं, यानी आमदनी कम और खर्चा अधिक । अब सवाल यह है कि जब लोग यह कहते हैं कि फलां-फलां क्षेत्र में राहत नहीं दी गई, टैक्स घटाए नहीं गये, इत्यादि, तो वे यह नहीं बताते कि सरकार की आमदनी का जरिया आखिर क्या हो ? लोगों से कुछ धन प्रत्यक्ष कर तो कुछ परोक्ष कर रूप में सरकार वसूलती है । अगर ऐसा न करे तो धन जुटाएगी कहां से, क्या अतिरिक्त नोट छापकर ? तब भी मुश्किलें खड़ी होंगी । आप चाहेंगे कि टैक्स न वसूला जाये या कम से कम टैक्स वसूला जाये, उपभोक्ता वस्तुओं के दाम न बढ़ें, आदि, तो सरकार पैसा लाएगी कहां से ? जब कोई राहत न मिलने की शिकायत करे तो उसे यह भी तो बताना चाहिए कि फलां-फलां वैकल्पिक तरीके से आमदनी बढ़ाई जानी चाहिए । ठीक, लेकिन यह न भूलें कि किसी न किसी को वह तरीका भी रास नहीं आयेगा और कहेगा हमको लूटा जा रहा है, हमें राहत चाहिए, आदि-आदि ।

उदाहरण के तौर पर मैं प्रत्यक्ष टैक्स, आयकर यानी इंकम टैक्स, की बात करता हूं । मेरी अपनी समझ से कर सीमा बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं थी । जिस देश में 20-25% जनता लाख-सवालाख रुपया सालाना की आमदनी में गुजर-बसर करती हो, उस देश में 5.00 लाख रुपये सालाना कोई कम पैसा है क्या ? तब 20% वाला टैक्स स्लैब उठाकर 8.00 लाख करने की जरूरत पर जोर क्यों दिया गया ? मैं भी एक करदाता हूं और मुझे भी इसका लाभ मिलेगा, फिर भी मैं इसे गैरजरूरी मानता हूं ।

इससे भी दिलचस्प तथ्य पर गौर फरमाएं । पिछले कुछ सालों से सरकारें महिलाओं पर विशेष रूप से मेहरबान रही हैं । पुरुषों के मामले में 1.60 लाख से अधिक की आमदनी पर टैक्स देना होगा पहले की तरह, लेकिन महिलाओं के लिए यह सीमा 1.90 रहेगी । इसका क्या औचित्य है ? मेरी आपत्ति सुनिए । समाज के उस तबके के लोगों, जो आयकर के घेरे में आते ही नहीं, में आम तौर पर महिलाएं भी अपने पतियों के साथ छोटे-मोटे काम करके परिवार चलाती हैं । उनके लिए आयकर की सीमा का कोई मतलब नहीं होता । लेकिन जो महिलाएं टैक्स के दायरे में आती हैं, वे अकेले परिवार का भरण-पोषण नहीं करती हैं, बल्कि उनके पति ही मुख्यतः आर्थिक जिम्मेदारियां निभाते हैं । कहीं कोई अपवाद हो सकता है जिसमें पति और शेष परिवार की आर्थिक जिम्मेवारी घर की महिला के सिर पर हो और उसका पति निठल्ला बैठा रहता हो । यदि महिला दायित्व उठा रही हों तो वे या तो अविवाहित होंगी अथवा उनके पति गुजर चुके होंगे या अलग रहने लगे होंगे । कुल मिलाकर यही माना जा सकता है कि महिला को पुरुष का भरण-पोषण शायद ही करना पड़े । इसके विपरीत समाज में ऐसे पुरुषों को संख्या कहीं अधिक होगी जो अकेले दम पर पत्नी और शेष परिवार की जिम्मेदारी ढो रहें हों । ऐसे में आप ही बताइए कि राहत पुरुषों को मिलनी चाहिए कि महिलाओं को ? दूसरे शब्दों में सवाल यों है: उन पुरुषों को राहत मिलनी चाहिए, जिनकी पत्नियों की कोई कमाई नहीं, या उन महिलाओं को जिनके पति भी कमाते हों या जिन पर पति का बोझ ही न हो ? लेकिन हो तो उल्टा रहा है !

मेरी टैक्स संबंधी इन बातों को हर कोई सिरे से खारिज कर देगा । मेरी बात क्यों गलत है, मैं समझ नहीं पाता । दरअसल आम तौर पर लोग टैक्स देना नहीं चाहते हैं । कम ही लोग होंगे जो स्वेच्छया और हंसी-खुशी टैक्स देना चाहते हों । अधिकांश लोग तो मिठाई बांटने निकल पड़ेंगे यदि टैक्स ही खत्म कर दिया जाए । हम सब चाहते हैं कि खूब विकास कार्य होवे, किंतु उसके लिए योगदान देने को तैयार नहीं होते । जिनके पास कुछ है ही नहीं वे भला क्या देंगे, किंतु जिनके पास है वे भी देना नहीं चाहते । यह सब मेरे समझ से परे है ।

किसी भी सभ्य लोकतंत्र में बजट ऐसा होना चाहिए जिसमें समाज के सबसे अधिक जरूरतमंद को ध्यान में रखा गया हो । क्या कभी ऐसा बजट आज तक बना भी है ? देश में सब जगह चर्चा रहती है कि देश की आर्थिक विकास दर 8-8, 10-10 फीसदी है, अथवा ऐसा लक्ष्य रखा गया है । क्या कभी इस बात पर भी चिंता जताई जाती है कि इस विकास से प्राप्त लाभ किसकी झोली में जा रहे हैं । कल्पना कीजिए कि आपके पास दो संभावनाएं हैं: पहला यह कि विकास दर 10 फीसदी हो और उसके लाभ समाज के खाते-पीते लोगों तक सीमित रहे, और दूसरा यह कि विकास दर केवल 5 फीसदी ही हो किंतु उसका फल संपन्नता के सबसे निचले पायदान पर खड़े आदमी के जीवन-स्तर के उठने में दिखता हो । आप किसे चुनेंगे ? जाहिर है कि आप उसे चुनेंगे जिसके चलते आप लाभ की स्थिति में हों । यही बात बजट पर लागू होती है, यदि उससे आपको निजी लाभ हो तो अच्छा, नहीं तो बेकार ।

अनेकों सवाल हैं जो बजट की चर्चा चलने पर मेरे जेहन में उठते हैं । मैं समझ नहीं पाता कि लोग कितने गंभीर चिंतन के बाद प्रतिक्रिया देते हैं । पता नहीं वे मुद्दे के सभी पहलुओं पर गंभीरता से सोचते भी हैं कि नहीं । – योगेन्द्र जोशी