क्रिक्रेट, क्रिक्रेट, बस क्रिक्रेट, और कुछ नहीं!

         पिछले 10-12 दिनों से टेलीविजन चैनलों पर मुझे क्रिक्रेट में स्पॉट फिक्सिंग के समाचारों के अलावा कुछ और सुनने को मिल ही नहीं रहा था । देश-विदेश में इस बीच बहुत कुछ हो गया, परंतु टीवी चैनलों को क्रिक्रेट के अलावा कुछ और समाचार सूझ ही नहीं रहे थे । देश में कहीं हत्या में 7 जनों के परिवार का सफाया हो रहा था तो कहीं गोदाम जल रहा था । अमेरिका में कहीं तूफान ने तबाही मचाई तो कहीं पुल टूट गया । ऐसी अनेक खबरें रही होंगी, किंतु टीवी चैनलों को क्रिक्रेट से फुरसत ही नहीं थी । श्रीसंत, विंदु दारासिंह, मयप्पन, श्रीनिवासन, आदि । बस घूमफिर कर इन्हीं को लेकर खबरें । यों कहिए कि उनके लिए क्रिक्रेट एक तरफ और सारा जहां दूसरी तरफ, फिर भी क्रिक्रेट भारी । या खुदा क्या कभी ऐसा भी कोई दिन आयेगा जब क्रिक्रेट का भूत ‘इंडियावासियों’के दिलोदिमाग से भाग जाये ?

दुर्योग से 25 की तारीख पर नक्सल आतंकियों ने क्रांग्रेस पार्टी की रैली पर ऐसा कहर बरपाया कि पूरा देश हिल गया । टीवी चैनलों को भी कुछ देर के लिए अपना बल्ला थामकर इस नये दुःसमाचार का प्रसारण करना ही पड़ा । पर ऐसा नहीं कि क्रिक्रेट-समाचार उन्होंने छोड़ दिया हो, बस थोड़ा विराम के साथ, कुछ कम जोश के साथ प्रसारण चलता रहा । इस देश में तो क्रिक्रेट की चर्चा के बिना ‘न्यूज’का आरंभ अथवा अंत सोचा ही नहीं जा सकता है ।

          बहुत से लोगों के मुख से मैंने सुना है कि इस देश के लिए क्रिक्रेट ‘रिलीजन’ बन चुका है, यानी एक ऐसी चीज जिसके बिना आप जीवन ही व्यर्थ समझने लगें, ऐसी चीज जो आपके तार्किक चिंतन की सामर्थ्य ही छीन ले । जैसे आप रिलीजन के मामले में सवाल नहीं उठाते हैं (वह रिलीजन ही क्या जिस पर आस्थावान शंकास्पद प्रश्न पूछने लगे), वैसे ही आप आंख मूदकर क्रिक्रेट का पक्ष लेते हैं, उसके अंधभक्त बने रहते हैं । कभी यह सवाल नहीं पूछते कि क्रिक्रेट की ऐसी दिवानगी भली चीज है क्या ? मैंने ऐसे लोगों को देखा है जो सब कुछ छोड़ क्रिक्रेट मैच के लिए टीवी पर चिपक जाते हैं; कमरे में बैठे-बैठे कंमेंटेटर बन जाते हैं; तालियां पीटने लगते हैं; खिलाड़ी के खेल में मीनमेख निकालते हैं; आदि-आदि ।

         देश में क्रिक्रेट की दीवानगी इस कदर फैली है कि कुछ लोग खिलाड़ियों को पूजते पाए जाते हैं, उन्हें भगवान कहने लगते हैं (ऐसा करना स्वयं भगवान का निरादर करना तो नहीं होगा ? किसी और खेल के मामले में मैंने ऐसा समर्पण भाव नहीं देखा !) । वे टीम-विशेष की जीत क लिए पूजापाठ करने बैठ जाते जाते हैं; प्रिय टीम की हार पर उपद्रव मचाने से भी नहीं कतराते हैं; और मामला इंडिया-पाकिस्तान का हो तो कहना ही क्या । जैसे शराबी बिना शराब के बेचैन हो जाता है; जुआबाज बिना जुआ खेले रह नहीं पाता; नशेड़ी नशे के बिना जी नहीं पाता; वैसे ही क्रिक्रेट के दीवाने क्रिक्रेट के खेल के बिना रह नहीं सकते ।

         ऐसा पागलपन समाज के लिए ठीक है क्या ? क्या दुनिया में और खेल नहीं हैं क्या ? बच्चों-युवाओं को अन्य खेलों के प्रति प्रेरित नहीं किया जाना चाहिए क्या ? ऐसे अनेकों प्रश्न मेरे दिमाग में उठते रहते हैं । ये सवाल लोगों के दिमाग में क्यों नहीं उठते ? मैं तो क्रिक्रेट का खेल सपने में भी नहीं देख सकता, जागृत अवस्था में तो सवाल ही नहीं !

जिस आई पी एल की आजकल धूम मची है वह खेल नहीं है । वह किसी के लिए जुआ है तो और के लिए धनकमाई का एक और धंधा है । खिलाड़ियों की नीलामी की जाती है तो यों ही नहीं । जब यह एक बिजनेस बन चुका हो जिसके रास्ते सभी संबंधित पक्ष पैसा कमाना चाहते हों तो वहां उल्टा-सीधा बहुत कुछ होना ही है । अधिकाधिक दर्शकों को आकर्षित करने के लिए टीवी चैनलों पर रातदिन प्रसारण करना ही होगा । ऐसे में अन्य समाचार गौण बन जाएं तो आश्चर्य ही क्या ? सट्टेबाजी तो आदमी के धन-लोलुपता का सीधा परिणाम है । तीन-चार दिन पहले और कल फिर स्थानीय अखबार में खबर थी कि वाराणसी के श्मशान घाटों (हरिश्चंद्र एवं मणिकर्णिका) पर आने वाले शवों को लेकर भी सट्टेबाजी की जा रही है कि घंटे भर में कितने शव आएंगे । सट्टेबाजी आदमी के चरित्र में है, लेकिन यह वहां नहीं दिखती जहां अधिक लोग मामले में दिलचस्पी नहीं दिखाते । चूंकि क्रिक्रेट में दिलचस्पी लाखों-करोड़ों की है इसलिए यह सट्टे के लिए बेहतर धंधा है ।

चूंकि अब क्रिक्रेट कमाई का लाजवाब धंधा बन चुका है, अतः संबंधित पक्ष चाहेंगे कि इसको खूब प्रचारित-प्रसारित किया जाए और अधिक से अधिक लोगों को इसकी ओर खींचा जाए । इस क्रिक्रेट में चियर गर्ल्स क्यों शामिल होती हैं? सोचिए । क्रिकेट को लोगों के दिमाग में ठूंसने में टीवी चैनलों एवं समाचारपत्रों की भूमिका बहुत अहम हो चुकी है । क्या वजह है कि वे कहलाते तो न्यूज चैनल हैं लेकिन हकीकत में क्रिक्रेट चैनल बन के रह गये हैं । इन चैनलों का काम होना चाहिए कि सभी प्रकार के समाचार वे प्रसारित करें, किंतु जैसा मैं कह चुका हूं पिछले कुछ दिनों से वे केवल क्रिक्रेट की ही बात करते रहे हैं । अगर उनसे पूछा जाए कि ऐसा क्यों है तो वे रटा-रटाया तर्क (कुतर्क?) पेश करेंगे: “दर्शक तो क्रिक्रेट के बारे में ही सुनना चाहते हैं, और हम वही तो दिखायेंगे जो वे चाहते हैं ।”ठीक है, पर अपने को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने वाले मीडिया को लोगों में क्रिक्रेट की दिवानगी बढ़ने का काम करना चाहिए या उन्हें यह समझाना चाहिए कि अति ठीक नहीं । इसी अति का नतीजा है जो हम आज देख रहे हैं । न हम दीवाने होते और न ही क्रिक्रेट अन्य सभी खेलों को निरर्थक बना देता । क्रिक्रेट की दीवानगी बढ़ाने में टीवी चैनलों की जबरदस्त भूमिका रही है इसे कोई नकार नहीं सकता है । मुझे तो यह शंका होने लगी है कि इन चैनलों को भी बीसीसीआई (BCCI) द्वारा कुछ अनुचित लाभ पहुचाया जाता होगा । मेरे पास प्रमाण नहीं है, लेकिन क्रिक्रेट और केवल क्रिक्रेट की बात वे यों ही नहीं करते होंगे । – योगेन्द्र जोशी

आया मौसम वर्षफल का (नववर्ष 2013)

ख्रिस्तीय वर्ष 2013 का आगाज हो चुका है । इस मौके पर सभी देशवासियों के प्रति मेरी शुभाकांक्षाएं ।

नववर्ष के आगमन पर लोगों के मन में आने वाला समय कैसा रहेगा खुद के लिये तथा समाज-देश के लिए यह जानने की उत्कंठा होती है । लोग समझते हैं कि भविष्य की तस्वीर खींची जा सकती है । वे समझते हैं कि कुछ विशेषज्ञ भविष्य की घटनाओं को ‘पढ़ने’ की काबिलियत रखते हैं । लोगों की उत्कंठा शांत करने के लिए देश में बहुत से ‘एक्सपर्टों’ का जन्म हुआ है जिन्होंने भविष्यवाणी की अलग-अलग विधियां इजाद की हैं या अपनाई हैं । इनमें सबसे अधिक प्रचलित जन्म के समय ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति पर आधारित है । और इसी का सरलतर संस्करण मात्र जन्मतिथि के विचार पर आधारित विधि है जिसके परिणामों की जानकारी कई अखबारों/पत्रिकाओं में पढ़ने को मिल जाती हैं ।

विगत 28 दिसंबर के ‘अमर उजाला’ के साथ उपलब्ध ‘रुपायन’ नाम के परिशिष्ट के पन्ने जब मैंने पलटे तो पाया कि उसके आरंभ से अंत तक के सभी पृष्ठों में नाम के प्रथम अक्षर पर आधारित वर्षफल का ब्योरा छपा पड़ा है और कुछ नहीं । और परसों, 30 दिसंबर, के समाचारपत्र ‘हिंदुस्तान’ का भी एक पृष्ठ उसी प्रकार की भविष्यवाणी से भरा था, इस बार जन्ममाह पर आधारित । वस्तुतः ऐसे वर्षफल कई पत्र-पत्रिकाओं में दिसंबर-जनवरी के इस मौसम में और टेलीविजन चैनलों पर पढ़ने को मिल जाते हैं । इतना ही नहीं, बाजार में अलग-अलग नामराशियों के वर्षफलों के विस्तार से चर्चा वाली पुस्तिकाएं भी उपलब्ध हो जाती हैं ।

ऐसी प्रकाशित जानकारी देखकर मेरे मन में यह प्रश्न स्वाभाविक तौर पर उठ जाता है कि इन वर्षफलों की वाकई में कोई अहमियत है ? क्या लोग कही गई बातों पर विश्वास करते होंगे ? या ऐसी बातों को महज मनोरंजन के नाते पढ़ते होंगे ? मनोरंजन के लिए हम हास्य कविताएं सुनते हैं, व्यंगलेख पढ़ते हैं, बेतुकी हरकतों वाले वचकानी हेसी वाले टीवी सीरियल देखते हैं, इत्यादि । ठीक वैसे ही ये राशिफल, वर्षफल भी पढ़े जाते होंगे, लेकिन गंभीरता से इन्हें शायद ही कोई लेता होगा ।

इन्हें गंभीरता से लिया भी नहीं जा सकता है, क्योंकि इनका कोई तर्कसम्मत आधार है ही नहीं । बस ऐसा होता है यह कहते हुए इनको सही ठहराने की कोशिश की जाती है । और वैसे भी ये बातें अनुभव में सही ठहरती नहीं । भला कैसे सही हो सकती हैं । एक ही राशिनाम अथवा जन्मदिन वाले अनेक लोग इस धरती पर पैदा हुए होंगे, जिनकी पारिवारिक पुष्ठभूमि में कोई समता नहीं होगी; उनके शारीरिक एवं मानसिक स्वाथ्य तथा क्षमता में समानता की कोई संभावना नहीं; उनके परिवेश अलग-अलग होंगे; उनकी शिक्षा-दीक्षा में भी परस्पर भेद होगा ही; व्यावसायिक दृष्टि से भी उनमें समानता की उम्मीद की नहीं जा सकती है; इत्यादि । तब कैसे एक ही वर्षफल सबके लिए स्वीकार्य हो सकता है ?

इसके अतिरिक्त इस पर भी गौर करें कि लोगों के नाम राशियों के अनुसार हों यह आवश्यक नहीं । मैंने सुना है कि उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र में तो राशिनाम प्रयोग में न रखने को प्रचलन है, क्योंकि कुछ लोग मानते हैं कि ऐसा करने पर उम्र घटती है । आजकल तो लोग खोज-खोजकर ऐसा नाम रखने लगे हैं जिसे किसी ने सुना ही न हो – एकदम नया, दुनिया में अकेले एक व्यक्ति का । वैसे भी यह संभावना भी रहती है कि राशि पर आधारित नाम अच्छा लगे । मेरे उत्तराखंडीय समाज में राशिनाम का चलन है, फिर भी मेरा स्वयं का नाम मेरे पिताश्री ने कुछ हटकर चुना था । ऊपर मैंने रूपायन का उल्लेख किया ह, जिसमें नाम के प्रथम अक्षर के वर्षफल के साथ किसी सिनेतारिका अथवा महिला खिलाड़ी का उदाहरण भी दे रखा है । उन्हीं में शामिल है एक मुस्लिम महिला का नाम । मुझे पूरा विश्वास है कि इस्लाम धर्मावलंबियों में महीने की तारीखों के अनुसार नाम रखने की कोई परंपरा नहीं है । अगर होगी भी तो वह ‘हिजरी’ कलेंडर पर आधारित होगा न कि ख्रिस्तीय कलेंडर पर । तब संबंधित भविष्यवक्ता ने अपनी विधि उस महिला पर भी कैसे इस्तेमाल कर दी होगी ?

और गहराई से सोचने पर मन में सवाल उठता है कि कार्य-कारण (कॉज एंड इफेक्ट) के जिस सिद्धांत का उपयोग तार्किक विवेचना में किया जाता है वह ऐसी भविष्यवाणियों के मामले में कहीं नजर नहीं आता है । सवाल यह है किसी दिन विशेष पर पैदा हुए व्यक्ति का भविष्य किस प्रक्रिया के द्वारा जन्मतिथि निर्धारित करती है ।

कुल मिलाकर ऐसी कवायद की अहमियत शुद्ध मनोरंजन के अलावा कुछ और नहीं हो सकती है । भौतिकी (फिजिक्स) के अनुसार तो भविष्य जाना ही नहीं जा सकता है !! – योगेन्द्र जोशी

 

‘सत्यमेव जयते’ – आमिर खान का नया धारावाहिक

आम तौर पर मैं टेलिविजन कार्यक्रम नहीं देखता । बस समाचार चैनलों पर नजर दौड़ाता हूं, वह भी चाय-पानी या भोजन करते हुए । वर्षों से मैंने कोई टीवी सीरियल नहीं देखा है ।

 ‘सत्यमेव जयते’ 

किंतु आज, रविवार, 6 मई, मेरा मन हुआ कि मैं फिल्म अभिनेता आमिर खान का नितांत नया धारावाहिक ‘सत्यमेव जयते’ देख लूं; देखूं तो कि इस सीरियल में आखिर क्या है । इस सीरियल को लेकर आमिर के किसी टीवी समाचार चैनल पर प्रसारित एक साक्षात्कार के कुछ अंश मैं पहले देख-सुन चुका था, जिसमें आमिर ने यह खुलासा नहीं किया कि धारावाहिक में वह असल में क्या दिखाने जा रहे हैं । महज इस बात पर जोर था कि कुछ हटकर, कुछ नया, उसमें रहेगा । मुझे जिज्ञासा हुई कि मैं भी देखूं तो उसमें कुछ भी नया क्या है, उसमें क्या संदेश देने की आमिर ने कोशिश की है, इत्यादि ।

दरअसल आमिर को मैं लीक से हटकर कार्य करने वाला कलाकार समझता आया हूं । पिछले 20-25 वर्षों में मैंने एक या दो फिल्में देखी होंगी । इसलिए में इस काल के कलाकारों के बारे में खास कुछ जानता । चलते-चलाते जो सुनने-पढ़ने में आता है उसी पर मेरी जानकारी आधारित है । कुछ भी हो आमिर के बारे में मेरी धारणा थोड़ा हटकर ही रही है

इन आरंभिक शब्दों के बाद मैं धारावाहिक की विषयवस्तु पर लौटता हूं ।

विषयवस्तु 

निःसंदेह इसमें बहुत कुछ नया है, सामयिक एवं पीड़ाप्रद सामाजिक समस्या को धारावाहिक का मुद्दा बनाया गया है, और समाज को रचनात्मक संदेश का सार्थक प्रयास किया गया है । ‘स्टार प्लस’ पर पूर्वाह्न 11:00 से 12:30 बजे तक प्रसारित आज के प्रथम अंक (एपिसोड) में क्या था मैं इस स्थल पर उसका संक्षिप्त उल्लेख करने जा रहा हूं ।

पहले इसके नाम के बारे में । धारावाहिक का नाम ‘सत्यमेव जयते’ चुना गया है । ये शब्द हमारे संघीय सरकार के अशोक की लाट वाले प्रतीक अथवा मोहर के साथ प्रयुक्त हुए हैं । मेरा अनुमान है कि उक्त पदबंध ‘मुण्डक उपनिषद्’ के एक मंत्र का आरंभिक वाक्यांश है, किंतु वहां पर ‘जयति’ प्रयुक्त है न कि ‘जयते’, जो कि व्याकरण की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण लगता है । इस मंत्र के बारे में मैंने अन्यत्र लिखा भी है

आमिर के धारावाहिक का आज का अंक देश में इस समय प्रचलित भ्रूण हत्या पर केन्द्रित है । आमिर ने दो-तीन पीड़ित महिलाओं की व्यथा-कथा उन्हीं की जुबानी सुनाई है कि किस प्रकार उनकी सहमति के बिना उनके गर्भ इसलिए गिराए गये कि भावी संतानें कन्याएं होतीं; कैसे उन्होंने अंततः कन्याओं को जन्म दिया और परिवार (ससुराल) से अलग होकर नया जीवन आरंभ किया ।

कन्या भ्रूण हत्या

‘अल्ट्रासाउंड’ की चिकित्सकीय निदान विधि पर आधारित कन्या भ्रूण हत्या समाज के किस वर्ग में प्रमुखतया प्रचलित होगी इस बाबत आमिर ने कार्यक्रम में शामिल दर्शकों की राय जाननी चाही । लोगों का मत यही था कि यह समाज के अपेक्षया गरीब एवं अनपढ़ लोगों में अधिक प्रचलित है । आमिर ने एक शोधकर्ता के हवाले से इस धारणा का खंडन किया और बताया कि कन्या भ्रूण हत्या समाज के अपेक्षया संपन्न, उच्चशिक्षित और लब्धप्रतिष्ठ लोगों में अधिक मिलती है । आम धारणा के विपरीत अपने इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए अतिसामान्य तबके की दो-एक महिलाओं के साक्षात्कार भी प्रस्तुत किए गये कि कन्या-जन्म क्यों उनको स्वीकार्य है ।

यहां इस बात पर मैं टिप्पणी करना समीचीन समझता हूं कि समाज में एक भ्रम सदैव से व्याप्त रहा है । वह यह कि भ्रष्ट आचरण, आपराधिक प्रवृत्ति, और अशिष्ट व्यवहार आदि समाज के गरीब और अशिक्षित वर्ग में अधिक होता है । मेरे अनुभव में यह धारणा पूर्वाग्रहजनित एवं तथ्यहीन है । अभिजात लोगों के इस मत पर मुझे संस्कृत नाट्यकृति ‘मृच्छकटिकम्’ की यह उक्ति याद आती है “पापं कर्म च यत्परैरपि कृतं तत्तस्य संभाव्यते ।” अर्थात् दूसरों के पापकर्म को भी बेचारे गरीब द्वारा किया हुआ मानने में लोग नहीं हिचकिचाते हैं । भर्तृहरि नीतिशतक में भी कहा गया है “सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति”, अर्थात् सभी गुण धनवानों में ही देखे जाते हैं न कि धनहीनों में ।

आमिर ने अपने कार्यक्रम में आंकड़ों द्वारा यह भी दिखाया है कि पुरुष एवं स्त्रियों के मध्य लिंगानुपात पिछले 25 वर्षों में किस प्रकार लगातार घटता गया है, और कुछ राज्यों में तो यह 1000 पुरुषों पर लगभग 800 स्त्रियों के स्तर पर पहुंच चुका है । अल्ट्रासोनिक विधि को अपनाते हुए गर्भ में पल रही कन्या का भ्रूण गिराना दो-तीन हजार करोड़ रुपये का व्यवसाय बन चुका है इसका भी खुलासा किया गया है । देश के भौगोलिक मानचित्र के माध्यम से यह दिखाने की चेष्टा भी कार्यक्रम में की गयी है कि हरयाणा के आसपास आरंभ हुए यह व्यवसाय किस प्रकार देश के प्रायः हर कोने में फैल चुका है यह देखना चिंताजनक है । गर्भ गिराने का यह रोग उत्तराखंड (मेरा गृहराज्य) तक पहुंच गया है यह जान मुझे हैरानी हुई, जिसका मुझे अंदेशा नहीं था ।

परिवार नियोजन  से संबंध

कार्यक्रम में प्रस्तुत अधिकांश जानकारी मुझे कमोबेश पहले से थी । किंतु एक नई बात हैरान करने और कष्ट पहुंचाने वाली थी । एक स्त्रीरोग विशेषज्ञ ने यह जानकारी दी कि भ्रूण हत्या का यह फैशन विगत सदी के सत्तर के दशक में चलन में आया, जब परिवार नियोजन की बात जोर-शोर से चल रही थी । परिवार नियोजन लोग अपनाना तो चाहते थे, लेकिन चाहते थे कि ऐसा कोई रास्ता हो कि लड़का ही हो न कि लड़की । हैरानी की बात यह थी कि इसकी शुरुआत सरकारी अस्पतालों से हुई जो कालांतर में विरोध के चलते हुए चोरीे-छिपे जारी रहा । बाद में इसे गैरकानूनी घोषित तो कर दिया, लेकिन यह निजी अस्पतालों में घड़ल्ले से आज तक चलता आ रहा है । कार्यक्रम में दो पत्रकारों ने यह भी स्पष्ट किया कि कैसे उन्होंने सौ-एक डाक्टरों की इस अवैधानिक व्यवसाय में संलिप्तता पर स्टिंग आपरेशन किया । राजस्थान के विभिन्न अदालतों में उनके मामले कछुआ चाल से चल रहे हैं, और उन पर निर्णय आने की फिलहाल कोई उम्मींद नहीं ।

इस घटते अनुपात के गंभीर दुष्परिणामों की ओर आमिर ने ध्यान आकर्षित किया है । एक वीडियो दिखाया गया है जिसमें हरयाणा के कुछ युवकों ने अपना दुखड़ा रोया है कि लड़कियों की अनुपलब्धता के कारण उनकी शादी नहीं हो पा रही है । यह बात भी बताई गयी है कि किस प्रकार देश के अन्य क्षेत्रों से गरीब परिवारों की लड़कियां खरीदकर राजस्थान, हरयाणा जैसे जगहों पर बेचा जा रहा है । इन लड़कियों से शादी का स्वांग भर होता है, किंतु उन्हें नौकरानी से अधिक का दर्जा नहीं मिलता है ।

आमिर का निवेदन

आमिर ने इस मुद्दे पर रचनात्मक क्या हो रहा है इसकी जानकारी भी लोगों को दी है । यह बताया गया है कि कुछ सालों पहले पंजाब के नवाशहर में एक सरकारी अधिकारी (डिपुटी कमिश्नर/कलेक्टर ?) ने कन्याओं के पक्ष में मुहिम चलाई जो सफल रहा । लोग उससे जुड़ते गये और आज उसके आशाप्रद परिणाम सामने आ रहे हैं । लोगों की सोच में उल्लेखनीय अंतर आया है ।
कार्यक्रम में स्वयंसेवी संस्था ‘स्नेहालय’ की भी चर्चा की गई है, जो मां-बापों द्वारा त्यागी गई कन्याओं को अपनाता है, उनका लालन-पालन करता है । अंत में आमिर ने लोगों से स्नेहालय की मुहिम से जुड़ने की अपील की है, और उसके लिए चंदा देने की भी प्रार्थना की है । लोगों से यह भी मांग की गयी है कि वे आमिर से संपर्क साधकर राजस्थान सरकार से निवेदन करें कि ऊपर कहे गये अदालती मामलों में फास्ट-ट्रैक कोर्ट का गठन किया जाए और अपराधियों को शीघ्र सजा दिलाई जाए ।

कुल मिलाकर यह कार्यक्रम उन लोगों के लिए अहमियत रखता है जो संवेदनशील हों और सामाजिक मुद्दों से सरोकार रखने के इच्छुक हों । ‘अरे सब चलता है’ की सोच रखने वालों के लिए यह कार्यक्रम नहीं है ।

आमिर और उनके सहयोगियों को मेरी बधाई और आगे सफलता के लिए शुभकामनाएं । योगेन्द्र जोशी

आमिर के धारावाहिक की वेबसाइट हैः satyamevjayate.in

विजयादशमी के पर्व पर व्यक्त विचार: बेचारा रावण

विजयादशमी के पावन पर्व पर
सभी देशवासी एवं विदेशवासी भारतीयों को
मेरी मंगलकामनाएं

आज विजयादशमी का पर्व संपन्न हो चुका है । देश भर में अपने-अपने तरीके से इस मनाया गया है । इस पर्व पर देश के कई भागों में रावण के पुतले के दहन की परंपरा प्रचलन में है । कहा जाता है कि जब भगवान् श्रीराम ने रावण का वध करके लंका पर विजय पाई और वे अयोध्या लौटे तब नगरवासियों ने हर्षोल्लास के साथ विजय पर्व मनाया था । उसी घटना की स्मृति में यह पर्व रावण-दहन के रूप में मनाया जाता है ।

विजयादशमी बुराई के ऊपर अच्छाई की, असत्य के ऊपर सत्य की, अनर्थ के ऊपर अर्थ की, कदाचार के ऊपर सदाचार की, स्वोपकार के ऊपर परोपकार की, जीर के रूप में देखा जाता है । रावण को बुराई के प्रतीक के तौर पर प्रस्तुत करते हुए उसका दहन किया जाता है, और उस दहन को समाज में व्याप्त बुराइयों के खात्मे के संकेत के तौर पर देखा जाता है । रावण-दहन समाज की बुराइयों के खात्मे के संकल्प की याद दिलाता है, ऐसा समझा जा सकता है ।

क्या रावण-दहन वाकई में बुराइयों को दूर करने का संकल्प व्यक्त करता है, और क्या यह लोगों को अच्छाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे पाता है ? या यह एक विशुद्ध उत्सव भर है जिसे हम साल में इस दिन मनाते हैं और फिर अगले साल के उत्सव का इंतजार करते हैं । भले ही हम विजयादशमी के दिन संपन्न रावण-दहन की व्याख्या तरह-तरह से करें, हकीकत यह है कि यह भी होली-राखी के पर्व की तरह ही महज एक पर्व है – आज मनाया और साल भर के लिए भूल गए ।

मुझे नहीं लगता है कि लेखों-व्याख्यानों में कही जाने वाली ‘अच्छाई की जीत एवं बुराई की हार’ जैसी औपचारिक बातें वास्तविक जीवन से कोई ताल्लुक रखती हैं । मुझे तो यह मनोरंजन के तमाम कार्यक्रमों की तरह का एक और कार्यक्रम लगता है । बड़े-बड़े पुतले जलाओ, पटाखे छोड़ो, आतिशबाजी दिखओ, और एक दर्शनीय नजारा जुटी हुई भीड़ के सामने पेश करो, बस । बुद्धिजीवीगण राहण-दहन को बुराई पर अच्छाई की जीत के तौर पर भले ही दर्ज करें, आम जन के लिए तो यह एक तमाशा भर है, जिसे देखने बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सभी भीड़ में शामिल होते हैं । रावण-दहन के बाद जिंदगी अपने ढर्रे पर चल निकलती है । जिसे घूस लेना है वह लेता रहेगा, जिसे दूसरे की संपदा हथियानी है वह हथियाएगा, जिसे कमजोर का शोषण करना है वह करता रहेगा, जिसे गुंडई-बदमाशी करनी है वह करेगा ही है । रावण का पुतला जले या न यह सब यथावत् चलता रहेगा । समाज में अच्छाई-बुराई का मिश्रण चलता रहेगा । फिर किस बात को लेकर बुराई पर अच्छाई की जीत कहें ? बुराई का प्रतीक तो जल जाता है, लेकिन बुराई बनी रहती है ! इस संसार का यही सच है ।

मैंने एसे अवसरों पर लोगों को कहते सुना है और लेखों में पढ़ा है कि हमें ‘यह करना चाहिए, वह करना चाहिए; ऐसा नहीं करना चाहिए, वैसा नहीं करना चाहिए’ आदि-आदि । क्या वयस्क मनुष्य इतना नादान होता है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं का ज्ञान ही न हो ? अगर विशेषज्ञता स्तर की बात हो तो संभव है कि आम आदमी को बहुत कुछ समझाना पड़े । जैसे आदमी को यह बताने की आवश्यकता होती है कि हृद्रोग से कैसे बचा जाए, इंटरनेट कैसे काम करता है, केमिस्ट्री में पॉलिमराइजेशन क्या होता है, भौतिकी का सापेक्षता सिद्धांत क्या है, इत्यादि । लेकिन एक व्यक्ति के समाज के प्रति क्या कर्तव्य हैं यह भी कोई बताने की चीज है ? क्या यह भी किसी से कहा जाना चाहिए कि उसे नियम-कानूनों का पालन करना चाहिए और अपराध नहीं करना चाहिए । हम सब ये बातें बखूबी जानते हैं, लेकिन आदत से बाज नहीं आते हैं ।

इसमें दो राय नहीं कि यदि सभी लोग अपने-अपने हिस्से के कर्तव्य निभाएं तो समाज में बुराइयां ही न रहें । लेकिन ऐसा होता नहीं है । किसको क्या करना चाहिए यह तो सभी बता देते हैं, परंतु यह कोई नहीं बताता कि जब कोई कर्तव्य-पालन नहीं करता तो क्या करें । मुझे आज तक ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो यह बता सके कि तब क्या करें । आप अपराध करने वाले को सजा दे सकते हैं (वह भी इस देश में कम ही होता है !), लेकिन वह अपराध ही न करे, उस प्रवृत्ति से बचे, इसके लिए कोई क्या करे ? कुछ नहीं कर सकते न ! तब भ्रष्टाचार यथावत् बना रहेगा ।

रावण हर वर्ष जलेगा । बार-बार जलने के लिए उसे अस्तित्व में बना रहना है । रावण की अहमियत बनी रहे इसके लिए भ्रष्टाचार को भी बने रहना है । बेचारा रावण, समाज उसे बार-बार मरने को मजबूर करते आ रहे हैं । हा हा हा … ! जय हिंद – योगेन्द्र जोशी