पिछले 10-12 दिनों से टेलीविजन चैनलों पर मुझे क्रिक्रेट में स्पॉट फिक्सिंग के समाचारों के अलावा कुछ और सुनने को मिल ही नहीं रहा था । देश-विदेश में इस बीच बहुत कुछ हो गया, परंतु टीवी चैनलों को क्रिक्रेट के अलावा कुछ और समाचार सूझ ही नहीं रहे थे । देश में कहीं हत्या में 7 जनों के परिवार का सफाया हो रहा था तो कहीं गोदाम जल रहा था । अमेरिका में कहीं तूफान ने तबाही मचाई तो कहीं पुल टूट गया । ऐसी अनेक खबरें रही होंगी, किंतु टीवी चैनलों को क्रिक्रेट से फुरसत ही नहीं थी । श्रीसंत, विंदु दारासिंह, मयप्पन, श्रीनिवासन, आदि । बस घूमफिर कर इन्हीं को लेकर खबरें । यों कहिए कि उनके लिए क्रिक्रेट एक तरफ और सारा जहां दूसरी तरफ, फिर भी क्रिक्रेट भारी । या खुदा क्या कभी ऐसा भी कोई दिन आयेगा जब क्रिक्रेट का भूत ‘इंडियावासियों’के दिलोदिमाग से भाग जाये ?
दुर्योग से 25 की तारीख पर नक्सल आतंकियों ने क्रांग्रेस पार्टी की रैली पर ऐसा कहर बरपाया कि पूरा देश हिल गया । टीवी चैनलों को भी कुछ देर के लिए अपना बल्ला थामकर इस नये दुःसमाचार का प्रसारण करना ही पड़ा । पर ऐसा नहीं कि क्रिक्रेट-समाचार उन्होंने छोड़ दिया हो, बस थोड़ा विराम के साथ, कुछ कम जोश के साथ प्रसारण चलता रहा । इस देश में तो क्रिक्रेट की चर्चा के बिना ‘न्यूज’का आरंभ अथवा अंत सोचा ही नहीं जा सकता है ।
बहुत से लोगों के मुख से मैंने सुना है कि इस देश के लिए क्रिक्रेट ‘रिलीजन’ बन चुका है, यानी एक ऐसी चीज जिसके बिना आप जीवन ही व्यर्थ समझने लगें, ऐसी चीज जो आपके तार्किक चिंतन की सामर्थ्य ही छीन ले । जैसे आप रिलीजन के मामले में सवाल नहीं उठाते हैं (वह रिलीजन ही क्या जिस पर आस्थावान शंकास्पद प्रश्न पूछने लगे), वैसे ही आप आंख मूदकर क्रिक्रेट का पक्ष लेते हैं, उसके अंधभक्त बने रहते हैं । कभी यह सवाल नहीं पूछते कि क्रिक्रेट की ऐसी दिवानगी भली चीज है क्या ? मैंने ऐसे लोगों को देखा है जो सब कुछ छोड़ क्रिक्रेट मैच के लिए टीवी पर चिपक जाते हैं; कमरे में बैठे-बैठे कंमेंटेटर बन जाते हैं; तालियां पीटने लगते हैं; खिलाड़ी के खेल में मीनमेख निकालते हैं; आदि-आदि ।
देश में क्रिक्रेट की दीवानगी इस कदर फैली है कि कुछ लोग खिलाड़ियों को पूजते पाए जाते हैं, उन्हें भगवान कहने लगते हैं (ऐसा करना स्वयं भगवान का निरादर करना तो नहीं होगा ? किसी और खेल के मामले में मैंने ऐसा समर्पण भाव नहीं देखा !) । वे टीम-विशेष की जीत क लिए पूजापाठ करने बैठ जाते जाते हैं; प्रिय टीम की हार पर उपद्रव मचाने से भी नहीं कतराते हैं; और मामला इंडिया-पाकिस्तान का हो तो कहना ही क्या । जैसे शराबी बिना शराब के बेचैन हो जाता है; जुआबाज बिना जुआ खेले रह नहीं पाता; नशेड़ी नशे के बिना जी नहीं पाता; वैसे ही क्रिक्रेट के दीवाने क्रिक्रेट के खेल के बिना रह नहीं सकते ।
ऐसा पागलपन समाज के लिए ठीक है क्या ? क्या दुनिया में और खेल नहीं हैं क्या ? बच्चों-युवाओं को अन्य खेलों के प्रति प्रेरित नहीं किया जाना चाहिए क्या ? ऐसे अनेकों प्रश्न मेरे दिमाग में उठते रहते हैं । ये सवाल लोगों के दिमाग में क्यों नहीं उठते ? मैं तो क्रिक्रेट का खेल सपने में भी नहीं देख सकता, जागृत अवस्था में तो सवाल ही नहीं !
जिस आई पी एल की आजकल धूम मची है वह खेल नहीं है । वह किसी के लिए जुआ है तो और के लिए धनकमाई का एक और धंधा है । खिलाड़ियों की नीलामी की जाती है तो यों ही नहीं । जब यह एक बिजनेस बन चुका हो जिसके रास्ते सभी संबंधित पक्ष पैसा कमाना चाहते हों तो वहां उल्टा-सीधा बहुत कुछ होना ही है । अधिकाधिक दर्शकों को आकर्षित करने के लिए टीवी चैनलों पर रातदिन प्रसारण करना ही होगा । ऐसे में अन्य समाचार गौण बन जाएं तो आश्चर्य ही क्या ? सट्टेबाजी तो आदमी के धन-लोलुपता का सीधा परिणाम है । तीन-चार दिन पहले और कल फिर स्थानीय अखबार में खबर थी कि वाराणसी के श्मशान घाटों (हरिश्चंद्र एवं मणिकर्णिका) पर आने वाले शवों को लेकर भी सट्टेबाजी की जा रही है कि घंटे भर में कितने शव आएंगे । सट्टेबाजी आदमी के चरित्र में है, लेकिन यह वहां नहीं दिखती जहां अधिक लोग मामले में दिलचस्पी नहीं दिखाते । चूंकि क्रिक्रेट में दिलचस्पी लाखों-करोड़ों की है इसलिए यह सट्टे के लिए बेहतर धंधा है ।
चूंकि अब क्रिक्रेट कमाई का लाजवाब धंधा बन चुका है, अतः संबंधित पक्ष चाहेंगे कि इसको खूब प्रचारित-प्रसारित किया जाए और अधिक से अधिक लोगों को इसकी ओर खींचा जाए । इस क्रिक्रेट में चियर गर्ल्स क्यों शामिल होती हैं? सोचिए । क्रिकेट को लोगों के दिमाग में ठूंसने में टीवी चैनलों एवं समाचारपत्रों की भूमिका बहुत अहम हो चुकी है । क्या वजह है कि वे कहलाते तो न्यूज चैनल हैं लेकिन हकीकत में क्रिक्रेट चैनल बन के रह गये हैं । इन चैनलों का काम होना चाहिए कि सभी प्रकार के समाचार वे प्रसारित करें, किंतु जैसा मैं कह चुका हूं पिछले कुछ दिनों से वे केवल क्रिक्रेट की ही बात करते रहे हैं । अगर उनसे पूछा जाए कि ऐसा क्यों है तो वे रटा-रटाया तर्क (कुतर्क?) पेश करेंगे: “दर्शक तो क्रिक्रेट के बारे में ही सुनना चाहते हैं, और हम वही तो दिखायेंगे जो वे चाहते हैं ।”ठीक है, पर अपने को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने वाले मीडिया को लोगों में क्रिक्रेट की दिवानगी बढ़ने का काम करना चाहिए या उन्हें यह समझाना चाहिए कि अति ठीक नहीं । इसी अति का नतीजा है जो हम आज देख रहे हैं । न हम दीवाने होते और न ही क्रिक्रेट अन्य सभी खेलों को निरर्थक बना देता । क्रिक्रेट की दीवानगी बढ़ाने में टीवी चैनलों की जबरदस्त भूमिका रही है इसे कोई नकार नहीं सकता है । मुझे तो यह शंका होने लगी है कि इन चैनलों को भी बीसीसीआई (BCCI) द्वारा कुछ अनुचित लाभ पहुचाया जाता होगा । मेरे पास प्रमाण नहीं है, लेकिन क्रिक्रेट और केवल क्रिक्रेट की बात वे यों ही नहीं करते होंगे । – योगेन्द्र जोशी